जब विदाई की तालियों में भीग गईं आंखें और सूटकेस में सिमट गईं वर्षों की निःस्वार्थ तपस्या दरभंगा प्रशासन के मर्म में अमिट छाप छोड़ गए उप विकास आयुक्त चित्रगुप्त कुमार, जिनकी सादगी, संजीदगी और सेवा ने सत्ता को संवेदनाओं से जोड़ा; अब उम्मीदों की नई लौ बनकर स्वप्निल ने संभाला दायित्व वर्तमान उप विकास आयुक्त के रूप में शुरू हो रही है एक नई प्रशासनिक यात्रा, जहां नज़रें अब एक नई संवेदना की खोज में हैं...

मिथिला की ऐतिहासिक धरती, जहां हर मोड़ पर इतिहास सांस लेता है, जहां सरोवरों में जल नहीं, परंपरा बहती है, जहां पुरानी इमारतों की दीवारें भी कहानियाँ सुनाया करती हैं। ऐसी ही भूमि पर, समाहरणालय के प्रांगण में उस दिन कुछ विशेष घट रहा था। यह कोई प्रशासनिक बैठक नहीं थी, न कोई नई योजना का शुभारंभ, और न ही किसी जनआंदोलन की गूंज। यह एक विदाई थी। एक अधिकारी उप विकास आयुक्त श्री चित्रगुप्त कुमार की विदाई, पर उससे भी कहीं ज़्यादा एक युग के अवसान की अनकही सी अनुभूति. पढ़े पुरी खबर.......

जब विदाई की तालियों में भीग गईं आंखें और सूटकेस में सिमट गईं वर्षों की निःस्वार्थ तपस्या दरभंगा प्रशासन के मर्म में अमिट छाप छोड़ गए उप विकास आयुक्त चित्रगुप्त कुमार, जिनकी सादगी, संजीदगी और सेवा ने सत्ता को संवेदनाओं से जोड़ा; अब उम्मीदों की नई लौ बनकर स्वप्निल ने संभाला दायित्व वर्तमान उप विकास आयुक्त के रूप में शुरू हो रही है एक नई प्रशासनिक यात्रा, जहां नज़रें अब एक नई संवेदना की खोज में हैं...
एक सूटकेस, कई यादें चित्रगुप्त कुमार जी की विदाई, दरभंगा प्रशासन की आंखें नम

दरभंगा: मिथिला की ऐतिहासिक धरती, जहां हर मोड़ पर इतिहास सांस लेता है, जहां सरोवरों में जल नहीं, परंपरा बहती है, जहां पुरानी इमारतों की दीवारें भी कहानियाँ सुनाया करती हैं। ऐसी ही भूमि पर, समाहरणालय के प्रांगण में उस दिन कुछ विशेष घट रहा था। यह कोई प्रशासनिक बैठक नहीं थी, न कोई नई योजना का शुभारंभ, और न ही किसी जनआंदोलन की गूंज। यह एक विदाई थी। एक अधिकारी उप विकास आयुक्त श्री चित्रगुप्त कुमार की विदाई, पर उससे भी कहीं ज़्यादा एक युग के अवसान की अनकही सी अनुभूति।

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उस दिन दरभंगा समाहरणालय के वृहद सभागार में जब लोगों ने एक साधारण सूटकेस को विदाई स्वरूप आगे बढ़ते हुए देखा, तो वह सूटकेस वस्त्र या कागजों से अधिक स्मृतियों का प्रतीक बन गया। फूलों की माला गले में, चेहरे पर संतुलित मुस्कान, और आंखों में वर्षों की सेवा की झलक उस व्यक्ति ने न केवल कागजों पर योजनाएं बनाई थीं, बल्कि ज़मीन पर उनका क्रियान्वयन भी कराया था।

वह अधिकारी कोई एक नाम नहीं, बल्कि प्रशासनिक उत्तरदायित्व का जीवंत रूप था। वे वर्षों से दरभंगा के प्रशासनिक ढांचे की रीढ़ रहे। कभी कड़क आवाज़ में आदेश देते, तो कभी ग्रामीण जनता की व्यथा सुनने चुपचाप झुककर बैठते।

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एक विदाई, जो महज़ औपचारिकता नहीं थी: फूलों के गुलदस्ते, मिठाइयों की टोकरी और सम्मानस्वरूप दिया गया वह सूटकेस, इन सबके पीछे छिपा था एक भाव। यह विदाई महज़ रिटायरमेंट का एक औपचारिक प्रसंग नहीं थी, बल्कि वर्षों की निःस्वार्थ सेवा को नमन करने का क्षण था। मंच पर एक ओर जिलाधिकारी, दूसरी ओर पुलिस अधीक्षक, और बीच में बैठे रहे वे अधिकारी मानो तीनों प्रशासनिक स्तंभ एक तस्वीर में समाहित हो गए हों। जिलाधिकारी श्री कौशल कुमार ने उन्हें ‘सिस्टम का स्तंभ’ कहा, वहीं पुलिस अधीक्षक जगुनाथ रेड्डी की आँखों में नम सी मुस्कान थी। एक ऐसा भाव, जिसे शब्दों में पिरोना आसान नहीं।

सिर्फ दफ्तर नहीं, लोगों के दिल में भी रहे बसे: जनता के साथ उनका रिश्ता प्रशासनिक दूरी पर टिका नहीं था। वे जब किसी किसान की फसल खराब होने पर मुआवजा सुनिश्चित करते थे, या किसी छात्रवृत्ति योजना को समय पर लागू करने के लिए रात 10 बजे तक दफ्तर में बैठे रहते थे तब उन्होंने यह नहीं सोचा कि ये उनकी ‘ड्यूटी’ है। उन्होंने इसे ‘कर्तव्य’ समझा, और वही उनकी पहचान बन गया। दरभंगा के ग्रामीण इलाकों में आज भी लोग उनके नाम को सम्मान से उच्चारित करते हैं “बाबू साहेब आए थे, काम हुआ।” यह एक साधारण वाक्य नहीं, बल्कि प्रशासन पर विश्वास की वह डोर है, जो वर्षों में बनती है।

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वह सूटकेस एक प्रतीक: जो सूटकेस उन्हें भेंट किया गया, उसमें भले ही वस्त्र रखने का स्थान हो, पर उस दिन वह एक प्रतीक बन गया वर्षों की मेहनत, कर्तव्य, ईमानदारी और सेवा का प्रतीक। उसकी ज़िप जब बंद हुई, तो मानो एक अध्याय भी वहीं पूर्ण हुआ। समारोह में उपस्थित लोग तालियों की गूंज में शायद वह चुप्पी नहीं सुन पाए, जो एक-एक कर्मचारी के मन में थी। हर हाथ जो उनके कंधे को छूकर विदा दे रहा था, शायद कह रहा था “आपके बिना यह कार्यालय अधूरा होगा।”

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विवेक और विनम्रता का दुर्लभ संयोग: वे न तो मीडिया में सुर्खियों के भूखे थे, न ही अपनी उपलब्धियों का प्रचार करने वाले। वे बस काम करते रहे चुपचाप, निरंतर, और ईमानदारी से। यही कारण रहा कि जब उन्हें विदाई दी जा रही थी, तो किसी ने मंच से भाषण में नहीं कहा कि “उन्होंने बहुत कुछ किया”, क्योंकि वह सब उपस्थित जनसमूह के चेहरों पर लिखा था। एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा “इन्हें देख प्रशासनिक सेवा पर गर्व होता है।” वहीं एक कनिष्ठ कर्मचारी ने धीरे से कहा “इनके जैसा बनना है, साहब।”

जब भावनाएं औपचारिकता से बड़ी हो जाती हैं: आमतौर पर विदाई समारोह एक निश्चित ढांचे में चलते हैं माल्यार्पण, मिठाई, सूटकेस, तस्वीरें और धन्यवाद ज्ञापन। पर इस दिन भावनाओं ने उस ढांचे को तोड़ दिया। लोग मंच के पास आकर उनके पैर छू रहे थे, गले लग रहे थे, और कह रहे थे “साहब, रहिएगा याद।” कुछ लोगों की उपस्थिति विशेष रूप से उल्लेखनीय रही पुलिस कप्तान, मुख्य विकास पदाधिकारी, नगर आयुक्त, और जिला योजना पदाधिकारी सबके चेहरों पर एक-सी भावना थी ‘सम्मान और अभाव।’

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वो जो चले गए, मगर छाप छोड़ गए: दरभंगा प्रशासनिक परिवार का वह स्तंभ आज भले ही सेवानिवृत्त हो गया हो, पर उनकी प्रेरणा, कार्यपद्धति और अनुशासन आज भी दफ्तर की फाइलों, कर्मचारियों की सोच और योजनाओं की संरचना में जीवित है। वह कहते थे “काम ऐसा करो कि कोई दूसरा आए, तो उसे रास्ता मिले, दीवार नहीं।” शायद यही कारण है कि उनके जाने के बाद भी वह फर्श, वह मेज़, वह कुर्सी सब कुछ उन्हें ढूंढता रहेगा।