जब एक अफसर ने प्रशासन को प्रणाम कर लोकतंत्र की अदालत में उतरने की ठानी डॉ. एस. सिद्धार्थ के वीआरएस पर मिथिला जन जन की आवाज की विशेष रिपोर्ट पढ़िए, जहां नीति, राजनीति और नीयत का गहरा विश्लेषण किया गया है!

पटना की गर्म हवाओं में इन दिनों एक ऐसा नाम तैर रहा है जिसने सत्ता, नीति और प्रशासन के कठोर गलियारों में अपनी साख बनाई डॉ. एस. सिद्धार्थ। शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के रूप में अपनी सक्रिय और कठोर छवि रखने वाले इस अफसर ने 17 जुलाई को अचानक वीआरएस की चिट्ठी सरकार को सौंप दी। यह खबर बिजली की तरह फैली। सूत्रों ने जब यह बताया कि वीआरएस के पीछे कोई ‘निजी कारण’ नहीं, बल्कि एक राजनीतिक मंशा छिपी है तब यह सिर्फ एक इस्तीफे की सूचना नहीं रही, बल्कि एक युग के संभावित अंत और एक नए अध्याय के आरंभ की आहट बन गई. पढ़े पुरी खबर......

जब एक अफसर ने प्रशासन को प्रणाम कर लोकतंत्र की अदालत में उतरने की ठानी डॉ. एस. सिद्धार्थ के वीआरएस पर मिथिला जन जन की आवाज की विशेष रिपोर्ट पढ़िए, जहां नीति, राजनीति और नीयत का गहरा विश्लेषण किया गया है!
जब एक अफसर ने प्रशासन को प्रणाम कर लोकतंत्र की अदालत में उतरने की ठानी डॉ. एस. सिद्धार्थ के वीआरएस पर मिथिला जन जन की आवाज की विशेष रिपोर्ट पढ़िए, जहां नीति, राजनीति और नीयत का गहरा विश्लेषण किया गया है!

पटना की गर्म हवाओं में इन दिनों एक ऐसा नाम तैर रहा है जिसने सत्ता, नीति और प्रशासन के कठोर गलियारों में अपनी साख बनाई डॉ. एस. सिद्धार्थ। शिक्षा विभाग के अपर मुख्य सचिव के रूप में अपनी सक्रिय और कठोर छवि रखने वाले इस अफसर ने 17 जुलाई को अचानक वीआरएस की चिट्ठी सरकार को सौंप दी। यह खबर बिजली की तरह फैली। सूत्रों ने जब यह बताया कि वीआरएस के पीछे कोई ‘निजी कारण’ नहीं, बल्कि एक राजनीतिक मंशा छिपी है तब यह सिर्फ एक इस्तीफे की सूचना नहीं रही, बल्कि एक युग के संभावित अंत और एक नए अध्याय के आरंभ की आहट बन गई। राजनीति के गलियारों में यह खबर फैलते ही हवा बदलने लगी। प्रशासन में चुप्पी थी लेकिन सियासत में सरगर्मी। सोशल मीडिया पर #एससिद्धार्थ ट्रेंड करने लगा, और दरवाजे के उस पार बैठी जनता सवाल करने लगी क्या अब एक और ईमानदार नौकरशाह लोकतंत्र की अदालत में उतरने को तैयार है?

एक अफसर, जिसने शिक्षा को नीतियों से जोड़ा: एस. सिद्धार्थ 1991 बैच के तमिलनाडु मूल के भारतीय प्रशासनिक सेवा के अधिकारी हैं, लेकिन बिहार के लिए वह सिर्फ एक आईएएस अफसर नहीं थे, बल्कि शासन की नीति और उसके ज़मीनी क्रियान्वयन के संतुलनकर्ता माने जाते रहे। शिक्षा विभाग में उन्होंने जितने सख्त फैसले लिए, उतने ही दूरदर्शी दृष्टिकोण से योजनाएं भी बनाईं। मॉडल स्कूलों की स्थापना, शिक्षक प्रशिक्षण के नए प्रारूप, और ऑनलाइन शिकायत निवारण जैसे उपायों ने उन्हें नीति-निर्माता के रूप में स्थापित किया।लेकिन हर रोशनी की एक परछाईं होती है। उनके दौर में शिक्षकों के तबादले, कार्यभार निर्धारण, और शासन के प्रति उत्तरदायित्व को लेकर विवाद भी उठे। शिक्षक संघों ने कई बार धरना-प्रदर्शन किए, लेकिन वह विचलित नहीं हुए। उनका प्रशासनिक स्टाइल साफ था "अगर सुधार करने हैं, तो असुविधा को नजरअंदाज़ करना होगा।"

वीआरएस की खबर एक चुपचाप क्रांति की भूमिका?

17 जुलाई को जब सिद्धार्थ ने वीआरएस के लिए आवेदन दिया, तब सरकारी फाइलों में सिर्फ एक आवेदन जुड़ा, लेकिन पर्दे के पीछे एक राजनीतिक पटकथा का पहला पन्ना लिखा गया। सरकार ने अभी तक इस आवेदन को मंजूरी नहीं दी है, लेकिन सूत्रों की मानें तो यह औपचारिकता भर है। उनके करीबी सूत्र बताते हैं कि यह वीआरएस राजनीति की तैयारी के तहत लिया गया एक ठोस कदम है। जदयू से टिकट मिलने की चर्चाएं ज़ोरों पर हैं और संभावित सीट के रूप में नवादा या गया जिले की किसी आरक्षित सीट का नाम सामने आ रहा है।

नीतीश कुमार के ‘राजनीतिक प्रशासनिक चाणक्य’: एस. सिद्धार्थ सिर्फ एक एसीएस नहीं रहे हैं। वह मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रधान सचिव भी रहे हैं और कई महत्वपूर्ण योजनाओं के नीति-सूत्रधार माने जाते रहे। उन्हें ‘नीतीश के भरोसेमंद अफसर’ की उपाधि दी जाती रही है। शायद यही कारण है कि जब उन्होंने वीआरएस के लिए आवेदन दिया, तो सिर्फ शिक्षा विभाग ही नहीं, नीतीश सरकार के पूरे ढांचे में एक मौन हलचल महसूस की गई। कोई इसे प्रशासनिक थकान कह रहा है, कोई इसे सत्ता की रणनीति। लेकिन राजनीतिक पंडित मानते हैं कि यह कदम जदयू की ओर से ओबीसी और दलित समुदाय को एक नया नेतृत्व देने की कोशिश है जो पढ़ा-लिखा हो, प्रशासनिक अनुभव रखता हो, और जनता से सीधा जुड़ाव बना सके।

लोकतंत्र के रंगमंच पर उतरने की तैयारी?

राजनीति में अफसरों का आना कोई नई बात नहीं, लेकिन जब कोई ऐसा अफसर राजनीति में उतरने की सोचता है, जिसने सत्ता को बहुत करीब से देखा हो, तब उसके इरादों को सिर्फ महत्वाकांक्षा नहीं कहा जा सकता। वह सत्ता के भीतर की विफलताओं से भी परिचित होता है और समाज के दर्द से भी। एस. सिद्धार्थ यदि जदयू से टिकट पाते हैं, तो संभावना है कि वे ओबीसी या दलित आरक्षित सीट से चुनाव लड़ें। यह सामाजिक समीकरणों को संतुलित करने की पार्टी की रणनीति भी हो सकती है, और सिद्धार्थ जैसे पढ़े-लिखे चेहरे को आगे कर 'गुड गवर्नेंस' के एजेंडे को फिर से जीवित करने का प्रयास भी।

निजी कारण या रणनीतिक चुप्पी?

सिद्धार्थ ने आवेदन में वीआरएस का कारण ‘निजी’ बताया है, लेकिन बिहार की राजनीति में निजी शब्द कभी भी केवल व्यक्तिगत नहीं होता। यह नीति, निपुणता और नवाचार के संतुलन से उपजे राजनीतिक निर्णयों की भाषा बन चुका है। उनके चुप रहने के पीछे भी एक मौन राजनीति है शायद वह नहीं चाहते कि वीआरएस को ‘राजनीतिक बगावत’ के रूप में देखा जाए। लेकिन सूत्र साफ कहते हैं "राजनीति अब उनका अगला पड़ाव है।"

प्रशासन में उनके उत्तराधिकारी को लेकर चर्चाएं: सिद्धार्थ के वीआरएस के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि शिक्षा विभाग में उनकी जगह कौन लेगा? कौन होगा वह व्यक्ति जो नीतियों को उसी सख्ती और दूरदर्शिता से लागू करेगा? विभाग के भीतर इस समय कई नाम चर्चा में हैं, लेकिन उनमें से किसी का भी प्रशासनिक अनुभव सिद्धार्थ जितना व्यापक नहीं है।

सोशल मीडिया की प्रतिक्रिया जनता की रुचि राजनीति में पढ़े-लिखे चेहरों को लेकर: #एससिद्धार्थ सोशल मीडिया पर ट्रेंड कर रहा है। ट्विटर, फेसबुक और यूट्यूब पर लोग अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहे हैं कुछ उन्हें ‘आशा की नई किरण’ कह रहे हैं, तो कुछ उन्हें 'राजनीति की नई प्रयोगशाला'। जनता अब शब्दों से ज़्यादा छवि देखना चाहती है, और सिद्धार्थ की छवि फिलहाल बेदाग है।

क्या यह बदलाव नीतीश युग को नया विस्तार देगा?

नीतीश कुमार लंबे समय से अपने शासन मॉडल को ‘सुशासन’ के नाम से परिभाषित करते रहे हैं, लेकिन बीते कुछ वर्षों में यह धार कुंद पड़ी है। ऐसे में यदि सिद्धार्थ जैसे अफसर, जिनकी प्रशासनिक साख खुद एक मिसाल है, राजनीति में आते हैं तो यह नीतीश ब्रांड राजनीति को एक नया आधार दे सकता है।

जब कलम राजनीति से हाथ मिलाती है: वीआरएस कोई साधारण घटना नहीं। यह एक अफसर की चुप्पी में भरी गई एक घोषणापत्र की पहली लाइन होती है। एस. सिद्धार्थ का इस्तीफा यदि स्वीकृत होता है और वह चुनावी मैदान में उतरते हैं, तो यह बिहार की राजनीति में उस धार का आगमन होगा, जिसमें नीति, नेतृत्व और अनुभव की त्रिवेणी बहती है। यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रशासन से राजनीति की यात्रा में वह कितने सफल होते हैं, लेकिन इतना तय है कि उन्होंने जो पहला कदम उठाया है, उसने सत्ता और समाज दोनों को सोचने पर मजबूर कर दिया है क्या अब अफसरशाही की ईमानदारी, राजनीति की नई उम्मीद बनेगी?