संपादकीय: "सुरक्षित सफर की सौगात, ऑटो में बस्ते बच्चों के सपने"
मिथिला की पावन धरती पर एक नई सुबह की किरण फूटी है, जहाँ बच्चों की खिलखिलाहट और उनके सुरक्षित भविष्य की उम्मीद फिर से जाग उठी है। बिहार के परिवहन विभाग और यातायात पुलिस ने एक ऐसा निर्णय लिया है, जो नन्हे-मुन्नों के स्कूल के रास्ते को संवारने का संकल्प लेता है। अब ऑटो, जो गाँव की कच्ची सड़कों से लेकर शहर की तंग गलियों तक बच्चों को शिक्षा की चौखट तक ले जाता है, नए नियमों के साथ उनकी हिफाजत का पहरेदार बनेगा. पढ़े पुरी खबर........

मिथिला की पावन धरती पर एक नई सुबह की किरण फूटी है, जहाँ बच्चों की खिलखिलाहट और उनके सुरक्षित भविष्य की उम्मीद फिर से जाग उठी है। बिहार के परिवहन विभाग और यातायात पुलिस ने एक ऐसा निर्णय लिया है, जो नन्हे-मुन्नों के स्कूल के रास्ते को संवारने का संकल्प लेता है। अब ऑटो, जो गाँव की कच्ची सड़कों से लेकर शहर की तंग गलियों तक बच्चों को शिक्षा की चौखट तक ले जाता है, नए नियमों के साथ उनकी हिफाजत का पहरेदार बनेगा। यह खबर मेरे लिए, मिथिला जन जन की आवाज समाचार के प्रधान संपादक आशिष कुमार के रूप में, केवल एक सूचना नहीं, बल्कि एक भावना है—उस मिट्टी की सुगंध है, जहाँ बच्चों के सपने पलते हैं और मेहनतकश ऑटो चालकों की रोजी चलती है।
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क्या कभी सोचा था कि एक ऑटो का गेट बंद करना इतना बड़ा बदलाव ला सकता है? जी हाँ, अब हर ऑटो का एक तरफ का गेट स्थायी रूप से बंद होगा, ताकि बच्चे बस्ता कंधे पर लटकाए, हँसते-खेलते स्कूल पहुँचें और माँ की गोद में सुरक्षित लौटें। यह नियम 1 मई 2025 तक लागू हो जाएगा। और सुनिए, 1 जून 2025 तक हर ऑटो में GPS ट्रैकर की रोशनी चमकेगी, जो बच्चों के सफर पर ममता भरी नजर रखेगा। यह तकनीक माता-पिता के दिल को ठंडक देगी और किसी अनहोनी में तुरंत सहारा बनेगी। ऑटो पर "ऑन स्कूल ड्यूटी" लिखा जाएगा, मानो वह गर्व से कह रहा हो कि मैं इन नन्हे कंधों पर सवार सपनों का रथ हूँ। लेकिन ई-रिक्शा को इस जिम्मेदारी से दूर रखा गया है, क्योंकि उनकी बनावट बच्चों की नाजुक जिंदगी के लिए पूरी तरह भरोसेमंद नहीं।
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यह खबर मेरे दिल को इसलिए छूती है, क्योंकि इसके पीछे एक लंबी जद्दोजहद की गूँज है। कुछ दिन पहले तक कानों में यह शोर था कि 1 अप्रैल 2025 से ऑटो और ई-रिक्शा पर पाबंदी लग जाएगी। उस खबर ने ऑटो चालकों के चेहरों पर उदासी बिखेर दी थी। उनके लिए ऑटो सिर्फ लोहे का ढाँचा नहीं, बल्कि बच्चों की किताबों और घर की रोटियों का आधार है। दूसरी ओर, माता-पिता परेशान थे कि अगर ऑटो रुक गए, तो उनके लाडले स्कूल कैसे जाएँगे? स्कूल बसें हर गाँव की गली तक नहीं पहुँचतीं, और निजी गाड़ियाँ हर जेब की पहुँच में नहीं। ऑटो यूनियनों ने हल्ला बोला, अभिभावकों ने हाथ जोड़े, और सरकार ने उनकी पुकार सुन ली। नए नियमों के साथ ऑटो को फिर से बच्चों का हमराही बनाया गया। यह जीत है—नन्हे सपनों की, मेहनत की, और उस जन-शक्ति की, जिसकी आवाज मैं, आशिष कुमार, अपनी कलम से उठाता हूँ।
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मगर यह राह आसान नहीं। ऑटो चालकों के सामने गेट बंद करने और GPS लगाने का पहाड़ है। गाँवों में, जहाँ दिन की कमाई से शाम की दाल पकती है, GPS का खर्च एक सपना-सा लगता है। सरकार से गुहार है कि वह सब्सिडी और सहायता का हाथ बढ़ाए। स्कूलों और अभिभावकों को भी कंधा देना होगा कि वे सिर्फ नियमों का पालन करने वाले ऑटो को ही चुनें। और सबसे बड़ी जिम्मेदारी प्रशासन की है कि ये नियम कागजों की स्याही न बनकर सड़कों की सच्चाई बनें।
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यह खबर एक कहानी है—उम्मीद की, मेहनत की, और उस अटूट प्यार की, जो मिथिला के लोग अपने बच्चों के लिए रखते हैं। हर सुबह, जब ऑटो की टनटनाहट गलियों में गूँजेगी, वह सिर्फ एक वाहन नहीं होगा। वह होगा एक सपना, जो बच्चों को शिक्षा की मंजिल तक ले जाएगा; एक भरोसा, जो माता-पिता के सीने को ठंडक देगा; और एक वादा, जो कहेगा कि बिहार का कल सुरक्षित है। मैं, आशिष कुमार, मिथिला जन जन की आवाज का नुमाइंदा, इस नई शुरुआत का साक्षी हूँ और आप सब से कहता हूँ—आइए, इसे मिलकर हकीकत बनाएँ।