काकोढ़ा में सिर्फ तार नहीं टूटा, टूटी संवेदनशीलता थानाध्यक्ष मनीष कुमार की चूक ने ली एक जान, और नतीजा हुआ निलंबन! पढ़ें इस रिपोर्ट को… जो उजागर करती है प्रशासनिक लापरवाही की परत-दर-परत सच्चाई!

दरभंगा ज़िले के सकतपुर थाना क्षेत्र स्थित काकोढ़ा गाँव में मुहर्रम की संध्या एक ऐसी करुण कथा बन गई, जिसने बिहार की पूरी प्रशासनिक मशीनरी को आइना दिखा दिया। एक ऐसा दाग, जो शायद सालों तक प्रशासन के माथे पर जला करता रहेगा। बिजली के तार से झुलसकर सिर्फ एक नागरिक नहीं मरा… मरी है प्रशासनिक संवेदनशीलता, विधि-व्यवस्था की ज़मीनी हकीकत, और सबसे बढ़कर एक थानाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी, जो कंधे पर वर्दी तो ढोते रहे, पर कर्तव्य को शायद जेब में रख छोड़ा था. पढ़े पुरी खबर.......

काकोढ़ा में सिर्फ तार नहीं टूटा, टूटी संवेदनशीलता थानाध्यक्ष मनीष कुमार की चूक ने ली एक जान, और नतीजा हुआ निलंबन! पढ़ें इस रिपोर्ट को… जो उजागर करती है प्रशासनिक लापरवाही की परत-दर-परत सच्चाई!
काकोढ़ा में सिर्फ तार नहीं टूटा, टूटी संवेदनशीलता थानाध्यक्ष मनीष कुमार की चूक ने ली एक जान, और नतीजा हुआ निलंबन! पढ़ें इस रिपोर्ट को… जो उजागर करती है प्रशासनिक लापरवाही की परत-दर-परत सच्चाई!

दरभंगा ज़िले के सकतपुर थाना क्षेत्र स्थित काकोढ़ा गाँव में मुहर्रम की संध्या एक ऐसी करुण कथा बन गई, जिसने बिहार की पूरी प्रशासनिक मशीनरी को आइना दिखा दिया। एक ऐसा दाग, जो शायद सालों तक प्रशासन के माथे पर जला करता रहेगा। बिजली के तार से झुलसकर सिर्फ एक नागरिक नहीं मरा… मरी है प्रशासनिक संवेदनशीलता, विधि-व्यवस्था की ज़मीनी हकीकत, और सबसे बढ़कर एक थानाध्यक्ष की ज़िम्मेदारी, जो कंधे पर वर्दी तो ढोते रहे, पर कर्तव्य को शायद जेब में रख छोड़ा था।

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काकोढ़ा में मौत गिरी थी तार बनकर, पर उससे पहले 'लापरवाही' की बारिश हो चुकी थी: 5 जुलाई 2025 की शाम 6:30 बजे। मुहर्रम का जुलूस गांव की गलियों से गुजर रहा था। मातमी धुनों के बीच ताजिया और झंडों का सिलसिला, श्रद्धा और समर्पण के साथ चला जा रहा था। लेकिन जैसे ही हाई वोल्टेज बिजली का तार टूटकर गिरा, श्रद्धा की जगह चीखें, और समर्पण की जगह अफरातफरी ने ले ली। इस हादसे में एक व्यक्ति की मौके पर ही मौत हो गई, और कई अन्य जख्मी हुए। सवाल यह नहीं कि तार गिरा कैसे, सवाल यह है कि जब पहले से बैठक में यह तय हो चुका था कि जुलूस के दौरान बिजली आपूर्ति अस्थायी तौर पर रोकी जाएगी, तो काकोढ़ा की गलियों में बिजली दौड़ कैसे रही थी?

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बैठक हुई, निर्देश दिये गये, लेकिन अमल कौन करेगा? थानाध्यक्ष तो बस 'मूकदर्शक' बनकर खड़े थे! मुहर्रम से पहले जो प्रशासनिक बैठक हुई थी, उसमें आदेश स्पष्ट था: जुलूस के समय विद्युत आपूर्ति अस्थायी रूप से रोकी जाए, ऊँचे झंडों, ताजिया पर सतर्कता बरती जाए, बिजली विभाग और पुलिस आपसी समन्वय से दुर्घटनाओं से बचाव करें। लेकिन जब हादसा हुआ, तब न बिजली विभाग को कोई सूचना दी गई थी और न थानाध्यक्ष द्वारा मौके पर रहते हुए भी कोई निर्देश दिया गया। क्या वर्दी का मतलब सिर्फ कंधे पर रैंक और हाथ में वायरलेस होता है? क्या ज़मीन पर मौजूद रहना पर्याप्त है, जब आप आंखें बंद किए खड़े हों?

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जांच रिपोर्ट ने खोली पोल थानाध्यक्ष की चुप्पी बनी मौत की वजह: 9 जुलाई को जिलाधिकारी द्वारा गठित जांच समिति ने जो रिपोर्ट सौंपी, उसमें कहा गया: स्थानीय थाना प्रभारी द्वारा कोई स्पष्ट निर्देश न देना और मौके पर रहते हुए भी विद्युत आपूर्ति नहीं रुकवाना एक प्रशासनिक चूक है, जो सीधे तौर पर दुर्घटना की ज़िम्मेदार है। बिजली विभाग के अभियंता ने भी स्वीकार किया कि कोई सूचना अथवा निर्देश स्थानीय प्रशासन या पुलिस द्वारा नहीं दिया गया था। इस रिपोर्ट के आधार पर वरीय पुलिस अधीक्षक ने 10 जुलाई को थानाध्यक्ष मनीष कुमार को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया।

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पर क्या सिर्फ एक अफसर ही दोषी है? क्या बाकी सब दूध के धुले हैं? यहाँ सवाल उठता है: 

क्या बिजली विभाग की निष्क्रियता पर कोई कार्रवाई होगी?

क्या मुहर्रम की बैठक में शामिल अन्य अफसरों से भी जवाबतलबी होगी?

क्या प्रशासन सिर्फ ‘बलि का बकरा’ बनाकर मामले को रफा-दफा करना चाहता है?

दरअसल, बिहार की व्यवस्था अब महज़ निर्देशों की कब्रगाह बन चुकी है जहां आदेश दिए तो जाते हैं, लेकिन ज़मीन तक पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ देते हैं।

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जब वर्दी खुद अंधी हो जाए, तो जनता कहाँ जाए?

थानाध्यक्ष मनीष कुमार सिर्फ एक उदाहरण हैं ऐसे न जाने कितने थाना प्रभारी हैं, जो मौके पर रहते हैं पर चेतना से कोसों दूर होते हैं। वर्दी की गरिमा तब धूमिल होती है, जब जिम्मेदारी की जगह "कानून की खानापूरी" प्राथमिकता बन जाए। काकोढ़ा की मौत न सिर्फ बिजली के तार से हुई वह मरी है लापरवाही से, उपेक्षा से, और उस मानसिकता से जो “सब ठीक है” कहकर हर गलती को ढकने की कोशिश करती है।

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विधवा का सवाल "क्या अब मेरा पति लौट आएगा?"

उस मृतक की पत्नी की आँखों में आँसू कम हैं, सवाल ज़्यादा हैं: 

"मेरे बच्चे की पढ़ाई कौन करेगा?"

"क्या मेरे आँसुओं की कीमत सिर्फ एक थानाध्यक्ष का निलंबन है?"

"क्या अगली बार भी कोई और जुलूस किसी और की लाश लेकर गुजरेगा?"

दरअसल, जब व्यवस्था गलती करे, तो एक पत्र जारी कर देना सबसे आसान होता है। पर असली इंसाफ तब होता है, जब लापरवाही करने वालों को सिर्फ निलंबन नहीं, दंड दिया जाए ऐसा दंड जो अगली बार किसी अफसर को आदेश को हल्के में न लेने दे।

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व्यवस्था के माथे पर सवाल है... जवाब किसके पास है?

काकोढ़ा की घटना ने यह स्पष्ट कर दिया है कि हमारी व्यवस्था निर्देशों की बुनियाद पर नहीं, संवेदनशीलता और सजगता की नींव पर टिकती है। और जब वही नींव दरकने लगे, तो कंधे की वर्दी और फाइलों की स्याही किसी का जीवन नहीं बचा सकती। दरभंगा पुलिस को चाहिए कि यह निलंबन महज़ खानापूरी न बने, बल्कि एक उदाहरण बने ताकि अगली बार कोई थानाध्यक्ष सिर्फ खड़ा न हो, बल्कि जिम्मेदारी से खड़ा हो।