हे राम! उस रात दरभंगा के कमतौल में क्या बीता उस अबला माँ पर जब आम के बगान में पिस्तौल की नोक पर नोंच ली गई अस्मिता, चीखें टकराईं अमावस से, और हमारी विशेष रिपोर्ट से हिली संवेदनशील पुलिस महकमा; SSP जगुनाथ रेड्डी जलारेड्डी और SDPO ज्योति कुमारी की तत्परता से चार दरिंदे सलाखों के पीछे, दो अब भी फरार!

पांच जून की वह शाम न केवल एक स्त्री की आत्मा के लिए अंत का आरंभ थी, बल्कि बिहार के दरभंगा ज़िले की उस मिट्टी के लिए भी कलंक का प्रतीक बन गई, जहां कभी विद्या, संस्कृति और मिथिला की गरिमा फलती-फूलती थी। यह वह दिन था जब कमतौल थाना क्षेत्र के एक गांव में दो बच्चों की मां एक गृहिणी, एक बेटी, एक पत्नी शाम ढलते ही बाहर निकली, शौच के लिए। और फिर लौट कर नहीं आई कम से कम वह नहीं जो पहले थी। लौटी तो बदहवास, खून-लथपथ आत्मा, टूटी हड्डियाँ नहीं, लेकिन उससे भी ज़्यादा टूटी हुई उसकी अस्मिता. पढ़े पुरी खबर.......

हे राम! उस रात दरभंगा के कमतौल में क्या बीता उस अबला माँ पर जब आम के बगान में पिस्तौल की नोक पर नोंच ली गई अस्मिता, चीखें टकराईं अमावस से, और हमारी विशेष रिपोर्ट से हिली संवेदनशील पुलिस महकमा; SSP जगुनाथ रेड्डी जलारेड्डी और SDPO ज्योति कुमारी की तत्परता से चार दरिंदे सलाखों के पीछे, दो अब भी फरार!
हे राम! उस रात दरभंगा के कमतौल में क्या बीता उस अबला माँ पर जब आम के बगान में पिस्तौल की नोक पर नोंच ली गई अस्मिता, चीखें टकराईं अमावस से, और हमारी विशेष रिपोर्ट से हिली संवेदनशील पुलिस महकमा; SSP जगुनाथ रेड्डी जलारेड्डी और SDPO ज्योति कुमारी की तत्परता से चार दरिंदे सलाखों के पीछे, दो अब भी फरार

दरभंगा: पांच जून की वह शाम न केवल एक स्त्री की आत्मा के लिए अंत का आरंभ थी, बल्कि बिहार के दरभंगा ज़िले की उस मिट्टी के लिए भी कलंक का प्रतीक बन गई, जहां कभी विद्या, संस्कृति और मिथिला की गरिमा फलती-फूलती थी। यह वह दिन था जब कमतौल थाना क्षेत्र के एक गांव में दो बच्चों की मां एक गृहिणी, एक बेटी, एक पत्नी शाम ढलते ही बाहर निकली, शौच के लिए। और फिर लौट कर नहीं आई कम से कम वह नहीं जो पहले थी। लौटी तो बदहवास, खून-लथपथ आत्मा, टूटी हड्डियाँ नहीं, लेकिन उससे भी ज़्यादा टूटी हुई उसकी अस्मिता।

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घटना का क्रम: आम के बग़ीचे की वह मनहूस रात: शाम के आठ बजकर पंद्रह मिनट। गर्मी की उमस और गांव की चुप्पी के बीच वह महिला, अपने दो मासूम बच्चों को नींद की थपकी देकर, थोड़ी निजता की खोज में बाहर निकली थी। यह वह समय था जब हर औरत को स्वतंत्र होना चाहिए शौच के लिए भी नहीं रुकना चाहिए but patriarchy disagrees. लेकिन उस रात दो लड़के झाड़ियों में पहले से छिपे थे। एक ने पीछे से बांह पकड़ ली। दूसरे ने मुंह बंद किया। कुछ ही क्षणों में दो और लड़के आ पहुँचे—पैर पकड़कर उसे ज़मीन पर गिरा दिया।

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उसकी चीख़ें जंगल में खो गईं। इंसान नहीं, जानवर नहीं, शायद पेड़ भी उस रात सिहर गए होंगे। चारों ने मिलकर उसे उठाया और पास के आम के बग़ीचे में ले गए, जहां पहले से दो और लड़के लाठी और टॉर्च लेकर खड़े थे। और फिर जो हुआ वह न केवल उसकी देह पर हमला था, बल्कि पूरे समाज की आत्मा पर बलात्कार था।

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पीड़िता की आपबीती: मौत से बदतर जिन्दगी: "पहले लाठी से मेरे पाँव पर मारा गया... फिर सबने जबरन कपड़े उतारने की कोशिश की... मैंने विरोध किया... तो एक ने पिस्तौल निकाल लिया और जान से मारने की धमकी दी... फिर बारी-बारी से सबने किया... मैं रोती रही, चिल्लाती रही... कोई नहीं आया... पेड़ चुप थे, ज़मीन जड़ थी... और आसमान ने भी नज़रें फेर ली थीं..." उस स्त्री की यह गवाही हमारे समय की सबसे भयावह साहित्यिक त्रासदी है। न वह कवि थी, न कहानीकार, लेकिन उसकी यह एक पंक्ति समूची सभ्यता पर भारी है। एक औरत जो माँ है, बहू है, पत्नी है, बेटी है उसकी गरिमा ऐसे चिथड़े-चिथड़े हो जाए कि उसकी अपनी ही परछाईं उससे डरने लगे?

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वीडियो और धमकी: अपराध की नई तकनीक: एक लड़के ने इस घिनौने अपराध का वीडियो बना लिया और जाते-जाते कह गया "अगर किसी से बोली, तो वायरल कर देंगे।" यह धमकी अब हथियार से भी खतरनाक है। एक महिला के लिए उसकी निजता, उसकी इज्जत, उसका चेहरा सबकुछ अब 'डिजिटल बलात्कार' के ख़तरे में है।

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डीएमसीएच और प्राथमिकी: न्याय की ओर पहला डगमग कदम: घटना के बाद वह महिला बेहोश हालत में घर लौटी। परिवार वालों ने उसे दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल (DMCH) में भर्ती कराया। इलाज के बाद, 9 जून की शाम को वह अपने पति और मां के साथ कमतौल थाना पहुँची और एक आवेदन दिया। उसमें छह लोगों के नाम लिखे थे, जिनमें से एक नाबालिग भी शामिल था। पुलिस हरकत में आई। चार अभियुक्त गिरफ्तार कर लिए गए। लेकिन क्या न्याय इतना सरल है?

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पुलिस की कार्रवाई: राहत या औपचारिकता? एसडीपीओ ज्योति कुमारी ने कहा: "त्वरित कार्रवाई की गई है। चार अभियुक्त गिरफ्तार हुए हैं। बाकी की जल्द गिरफ्तारी होगी।" ये शब्द उम्मीद जगाते हैं, लेकिन सवाल भी खड़े करते हैं क्या पहले भी ऐसे मामलों में त्वरित कार्रवाई हुई? क्या समाज सुधरा?

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गांव की चुप्पी और सभ्यता का पतन: इस पूरे प्रकरण में गांव की चुप्पी सबसे खतरनाक संकेत है। न कोई प्रत्यक्षदर्शी, न कोई बचाव करने वाला। गांव जहां हर किसी को सबकी खबर होती है, वहां छह लड़के एक महिला को उठाकर ले जाएं और कोई कुछ न देखे यह या तो सामूहिक डर है या सामूहिक अपराध।

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मौन की संस्कृति और डिजिटल भय: डर अब केवल अपराधियों का नहीं है, अब डर है 'वायरल वीडियो' का। यह नयी संस्कृति है जहां एक बलात्कार के बाद एक और बलात्कार 'ऑनलाइन' होता है। औरत की चीखें अब बगीचे में नहीं, बल्कि व्हाट्सएप ग्रुपों में कैद होती हैं। समाज अब दर्शक है, न्याय नहीं।

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न्यायिक संघर्ष और समाज की जिम्मेदारी: इस केस का न्याय केवल चार गिरफ्तारी से पूरा नहीं होता। पीड़िता को न्याय तब मिलेगा जब समाज अपनी दृष्टि बदलेगा। जब पंचायतें, स्कूल, मंदिर, परिवार सभी औरत की गरिमा को केंद्र मानेंगे। जब पुरुष बच्चों को सिखाएंगे कि सहमति क्या होती है। जब तकनीक को भय नहीं बल्कि सुरक्षा का साधन बनाया जाएगा।

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महिला की पुनर्रचना: क्या लौट सकती है उसकी पुरानी दुनिया? वह अब भी मां है, पत्नी है, लेकिन क्या उसकी आंखों में वही उजास लौटेगी? क्या उसके बच्चे उसकी कोख से जन्म लेने पर गर्व करेंगे? क्या उसका पति उसकी टूटी देह को फिर से संजो पाएगा? यह वह सवाल है जो समाज से पूछे जाने चाहिए, बार-बार, तब तक जब तक जवाब खुद समाज न बन जाए।

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हम सब दोषी हैं: इस दुष्कर्म में केवल वे छह लड़के दोषी नहीं हैं। दोषी है वह समाज जो मूकदर्शक बना रहा। दोषी है वह प्रशासन जो घटना के पहले क्यों नहीं चेता। दोषी है वह सिस्टम जहां आज भी महिला अकेले शौच नहीं जा सकती। और दोषी है वह सन्नाटा जो बलात्कार के बाद गांव की हवाओं में घुल जाता है, लेकिन कोई चिल्लाता नहीं। हे राम! क्या बीती होगी उस स्त्री पर उस रात? किस आत्मा से उसने फिर अपने बच्चों की ओर देखा होगा? कौन सा पत्थर दिल होगा जो यह सोच कर भी नहीं पिघलेगा?

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ये रिपोर्ट केवल शब्द नहीं हैं यह एक चीख है, एक आर्तनाद, जो आम के उस बग़ीचे से निकल कर पूरे देश को सुनाई देनी चाहिए। ताकि अगली बार कोई औरत शौच के लिए निकले, तो लौटे एक मुस्कान के साथ, न कि टूटे हुए आत्मसम्मान के साथ।