हे ईश्वर! मृत्यु और जीवन का विधान तो तेरे ही हाथ था... पर दरभंगा में एक कलियुगी पुत्र ने तेरे सिंहासन को लांघ लिया बाप को ज़िंदा रहते मरा घोषित कर दिया, माँ भी इस षड्यंत्र में सहभागी बनी, और जब न्याय अंधा होने को था, तभी जिलाधिकारी कौशल कुमार ने कलम उठाई और इस पापाचार को बेनक़ाब कर दिया! पढ़िए हमारी यह रौंगटे खड़ी कर देने वाली रिपोर्ट जहाँ बेटा बना यमराज और माँ बनी मृत्यु की दाई!

जब खून अपना रिश्ता भूल जाए, जब लालच रिश्तों से बड़ा हो जाए… तब बाप के साँस लेने पर भी संदेह होता है और बेटा, अपनी ही परछाईं को मृत्युपत्र बना देता है। पढ़िए अनुकंपा की कुटिल सीढ़ी पर चढ़ने की एक हृदयविदारक साजिश की शोकांतिका, जो दरभंगा में प्रशासन की आँखों में धूल और मानवता के गाल पर तमाचा है. पढ़े पुरी खबर.......

हे ईश्वर! मृत्यु और जीवन का विधान तो तेरे ही हाथ था... पर दरभंगा में एक कलियुगी पुत्र ने तेरे सिंहासन को लांघ लिया बाप को ज़िंदा रहते मरा घोषित कर दिया, माँ भी इस षड्यंत्र में सहभागी बनी, और जब न्याय अंधा होने को था, तभी जिलाधिकारी कौशल कुमार ने कलम उठाई और इस पापाचार को बेनक़ाब कर दिया! पढ़िए हमारी यह रौंगटे खड़ी कर देने वाली रिपोर्ट जहाँ बेटा बना यमराज और माँ बनी मृत्यु की दाई!
हे ईश्वर! मृत्यु और जीवन का विधान तो तेरे ही हाथ था... पर दरभंगा में एक कलियुगी पुत्र ने तेरे सिंहासन को लांघ लिया बाप को ज़िंदा रहते मरा घोषित कर दिया, माँ भी इस षड्यंत्र में सहभागी बनी, और जब न्याय अंधा होने को था, तभी जिलाधिकारी कौशल कुमार ने कलम उठाई और इस पापाचार को बेनक़ाब कर दिया! पढ़िए हमारी यह रौंगटे खड़ी कर देने वाली रिपोर्ट जहाँ बेटा बना यमराज और माँ बनी मृत्यु की दाई!

दरभंगा: बाप और बेटा...संसार का सबसे पवित्र संबंध। एक ऐसा संबंध जिसमें गोद में बिठाकर उँगलियाँ पकड़ कर चलना सिखाया जाता है। एक ऐसा रिश्ता जिसमें पिता अपने फटे पाँव के जूते के नीचे भी बेटे के लिए स्वप्नों का सवेरा समेटे रहता है। परन्तु जब बेटा ही वह गड्ढा खोदने लगे जिसमें पिता को जिन्दा दफन करना हो… तब यह न केवल संबंधों की मौत होती है, बल्कि सभ्यता के शोकगीत की शुरुआत भी कहलाती है।

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दरभंगा ज़िले में पथ प्रमंडल के चतुर्थवर्गीय कर्मचारी विष्णु देव यादव के साथ जो घटा, वह महज़ एक प्रशासनिक गलती नहीं, एक सामाजिक पतन का घोष है। उनका ही पुत्र, विकास कुमार यादव, जिसने शायद बचपन में उनकी ऊँगली थाम कर पहली बार ज़िंदगी के रास्ते पर कदम रखा होगा, आज वही बेटा उनके जीवित रहते हुए सरकारी दस्तावेज़ों में उन्हें मृत घोषित कर देता है, ताकि खुद को सरकारी नौकरी की कुर्सी पर बैठा सके। क्या यह कुर्सी थी? या मृत आत्मा की परछाईं?

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बाप के जीवित होने की गवाही क्लर्कों के काग़ज़ों में हार गई: बाप ज़िंदा थे। साँस ले रहे थे। चल-फिर रहे थे। फिर भी, एक जन्म-मृत्यु रजिस्ट्रार की स्याही और एक बेटे की साजिश ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। ज़रा कल्पना कीजिए उस क्षण की… जब विष्णु देव यादव, हतप्रभ, काँपते हाथों से आवेदन लेकर ज़िला कार्यालय में दाखिल होते हैं, यह कहने कि "मैं ज़िंदा हूँ, साहब… मेरा बेटा मुझे मार चुका है… सरकारी काग़ज़ों में।"

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यह वह क्षण था जब कलम का अपराध सामने आया। कागज़ों ने रिश्ते का गला घोंट दिया था। और बेटे ने पिता की साँसों को कर दिया था ग़ैर-क़ानूनी। जब माँ भी बनी इस साजिश की सहभागी… जिस माँ ने बच्चे को दूध पिलाया, वही माँ शांति देवी, इस पापाचार की भागी बनी। संभवत: उसने बेटे को यह सिखाया नहीं कि बाप की छाया हमेशा सिर पर रखी जाती है, उसका मृत्यु प्रमाण पत्र नहीं बनवाया जाता। पर यहाँ तो पूरा परिवार ही इस कुचक्र का हिस्सा बन गया जैसे संवेदनाएं घर छोड़ चुकी थीं, जैसे आत्मा की जगह अब दस्तावेज़ों में लिखी नौकरी की पंक्तियाँ बस गई थीं।

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अनुकंपा अब सहानुभूति नहीं, षड्यंत्र का मंच!

अनुकंपा… जिस शब्द में 'दया', 'विकलता', और 'सहयोग' की सुगंध होती है… वहीं आज वह शब्द गंधाता है धोखे, लालच और छल से। जब पिता की मौत पर मिलने वाली नौकरी पाने के लिए पिता को ही मार डाला जाए, तो यह केवल प्रशासन की कमजोरी नहीं, यह एक सामाजिक शवयात्रा है जहाँ बेटे कंधा नहीं, आवेदन पत्र उठाते हैं; जहाँ आँसू नहीं बहते, मृत्यु प्रमाण पत्र साक्ष्य बनते हैं।

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प्रशासन ने दिखाई तत्परता पर क्या रिश्ता लौटेगा?

डीएम कौशल कुमार ने नियुक्ति अनुशंसा तत्काल रद्द की। FIR का आदेश भी दिया। कार्यपालक अभियंता और जन्म-मृत्यु रजिस्ट्रार पर कार्रवाई की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या ऐसे मामलों में केवल कार्रवाई काफी है? क्या कानून किसी पिता के टूटे हुए आत्म-सम्मान को लौटा सकता है? क्या वह भरोसा वापिस ला सकता है, जो बाप की आँखों में बेटे के लिए पलता था? क्या किसी सरकारी दंड से बेटा फिर पुत्र बन सकता है?

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यह केवल धोखा नहीं, यह रिश्तों की सामूहिक हत्या है…यह वही बेटा है, जिसे बाप ने शायद भूखा रहकर पढ़ाया होगा। वही बेटा, जो अपने पिता की छाया में सोया होगा। पर जब उसी बेटे ने, पिता की साँसों के बदले अपनी नियुक्ति की सिफारिश करवाई, तो यह केवल धोखा नहीं रहा, यह एक मानविक नरसंहार बन गया जहाँ रक्त ने रक्त को धो डाला।

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दरभंगा की इस घटना ने एक प्रश्न छोड़ दिया है: क्या अनुकंपा अब करुणा नहीं, एक कुचक्र है? क्या पिता की मृत्यु अब सिर्फ़ एक औपचारिकता बन गई है नौकरी की अर्घ्य पाने की? और सबसे बड़ा सवाल क्या अब पिता को अपनी साँसों का प्रमाणपत्र लेकर चलना होगा? यह रिपोर्ट नहीं, एक चेतावनी है… कि यदि अब भी समाज नहीं चेता, तो आने वाले कल में बेटा अपनी माँ के दूध पर भी दावा कर देगा कि वह 'गलती से ज़िंदा' है…

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पढ़िए हमारे इस विशेष रिपोर्ट का अगला भाग जहाँ हम आपको बताएँगे कि कैसे देश भर में फैलती जा रही है अनुकंपा नीति के नाम पर पारिवारिक षड्यंत्रों की नयी परंपरा, और क्या इससे रोकने के लिए कोई कठोर नीति समय की मांग है।