मुंबई के अस्पताल में अंतिम साँस और मिथिला के गाँव में टूटा पहाड़ पढ़िए आनंद दा के संघर्ष, सेवा और संताप की दास्तान

मिथिला की धरती एक बार फिर शोक में डूबी है। बेनीपुर प्रखंड के बलहा गाँव की गलियाँ आज कुछ ज्यादा ही खामोश हैं। तुलसी चौरा पर बैठकर रामचरितमानस की चौपाइयाँ गुनगुनाने वाला गाँव आज मौन साधे बैठा है। किसी की आँखें नम हैं, किसी की आत्मा चित्कार कर रही है। और इन सबके बीच, एक नाम गूंज रहा है आनंद झा। वो आनंद जो मिथिला में दहेज विरोधी मुहिम के मशालची थे, वो आनंद जो मुंबई की गलियों से लेकर मिथिला की मिट्टी तक अश्लीलता के खिलाफ आवाज़ थे, वो आनंद जो नारी को बोझ नहीं, गहना समझते थे... अब नहीं रहे. पढ़े पुरी खबर.......

मुंबई के अस्पताल में अंतिम साँस और मिथिला के गाँव में टूटा पहाड़ पढ़िए आनंद दा के संघर्ष, सेवा और संताप की दास्तान
मुंबई के अस्पताल में अंतिम साँस और मिथिला के गाँव में टूटा पहाड़ पढ़िए आनंद दा के संघर्ष, सेवा और संताप की दास्तान

दरभंगा/ बेनीपुर: मिथिला की धरती एक बार फिर शोक में डूबी है। बेनीपुर प्रखंड के बलहा गाँव की गलियाँ आज कुछ ज्यादा ही खामोश हैं। तुलसी चौरा पर बैठकर रामचरितमानस की चौपाइयाँ गुनगुनाने वाला गाँव आज मौन साधे बैठा है। किसी की आँखें नम हैं, किसी की आत्मा चित्कार कर रही है। और इन सबके बीच, एक नाम गूंज रहा है आनंद झा। वो आनंद जो मिथिला में दहेज विरोधी मुहिम के मशालची थे, वो आनंद जो मुंबई की गलियों से लेकर मिथिला की मिट्टी तक अश्लीलता के खिलाफ आवाज़ थे, वो आनंद जो नारी को बोझ नहीं, गहना समझते थे... अब नहीं रहे।

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डेंगू से नहीं... समाज की नींद से मरे आनंद झा: आनंद झा केवल एक व्यक्ति नहीं थे, वो एक विचारधारा थे। एक आंदोलन थे। वो उस भीड़ का हिस्सा नहीं थे जो ‘बेटी हुई तो बोझ’ कहते हैं, बल्कि वो उस जुनून का नाम थे जो पाँच बेटियों का पिता होकर भी समाज को आईना दिखा रहे थे। मात्र 47 वर्ष की आयु में जब लोग जीवन को थोड़ा समेटना शुरू करते हैं, आनंद झा उसे विस्तारित कर रहे थे। वह मुंबई में एक सरकारी अधिकारी के निजी चालक के रूप में नौकरी करते हुए जीवन की साधारण चुनौतियों को साधना सीख चुके थे, लेकिन उनके सपनों में कोई साधारणपन नहीं था। उनकी आत्मा में बसा था ‘दहेजमुक्त भारत’ का सपना, और उस सपने को उन्होंने जीया भी। उनकी पत्नी कंचन आनंद झा की आंखों में अब सिर्फ आँसू नहीं, बल्कि एक डर है “पाँच बेटियाँ हैं… और एक 12 साल का बेटा… अब मैं अकेली कैसे?” यह सवाल अब सिर्फ उनका नहीं, बल्कि पूरे समाज के सामने है।

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मुंबई में इलाज के दौरान टूटा संघर्ष का दीया: गत सोमवार, मुंबई के एक निजी अस्पताल में इलाज के दौरान आनंद झा ने अंतिम साँस ली। डेंगू की पुष्टि हुई थी, लेकिन उन्हें ले डूबा एक अचानक आया हृदयाघात। जिस आदमी ने जीवनभर दूसरों की लड़ाई लड़ी, वो खुद अपने लिए डॉक्टर, वेंटिलेटर और इलाज का इंतज़ाम करने में मौन हार गया। उनकी मृत्यु की खबर जैसे ही फैली, सोशल मीडिया पर संवेदनाओं का सैलाब उमड़ पड़ा। मुंबई मैथिल समाज से जुड़े हर व्यक्ति की जुबान पर बस एक ही नाम था “आनंद दा नहीं रहे...”

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संघर्ष का वंश अब असहाय... आनंद झा सिर्फ एक परिवार के नहीं, बल्कि पूरे दहेज विरोधी आंदोलन के स्तंभ थे। उन्होंने ‘दहेजमुक्त भारत संस्था’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर देशभर में अनगिनत संगोष्ठियाँ, जनजागरूकता अभियान और धरने किए। वो स्टेज पर कम, गाँव की गलियों में ज़्यादा मिलते थे। उनकी आवाज़ में जो धार थी, वो नेताओं की माइक से नहीं निकलती, वो दिल की गहराई से आती थी। उनका बनाया आंदोलन ‘अश्लीलमुक्त मिथिला’, सिर्फ गानों का विरोध नहीं था यह एक सांस्कृतिक जागरण था। वो कहते थे “मिथिला में विद्वानों का जन्म हुआ है, ना कि फूहड़ता का महोत्सव।” आज वही आवाज़ हमेशा के लिए खामोश हो गई।

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अब कौन उठाएगा इस अलख को?

दहेजमुक्त भारत के राष्ट्रीय प्रवक्ता धनंजय झा ने गहरी संवेदना प्रकट करते हुए कहा: "आनंद झा एक सच्चे समाजसेवी थे। उनका निधन केवल पारिवारिक क्षति नहीं, बल्कि वैचारिक शून्यता है। हम सभी मिथिलावासियों से अपील करते हैं कि अब समय आ गया है कि हम उनके परिवार का हाथ थामें, क्योंकि आनंद दा का सपना अभी अधूरा है।" उनकी पत्नी कंचन देवी के सामने अब रोटी, शिक्षा, और बेटियों की शादी की चुनौती है। समाज के सजग लोगों के लिए यह एक ‘कर्म-परीक्षा’ का क्षण है।

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श्रद्धांजलि नहीं, संकल्प चाहिए!

हम हर मृत्यु पर ‘RIP’ लिखकर, मोमबत्ती जलाकर या फूल चढ़ाकर आगे बढ़ जाते हैं। लेकिन आनंद झा जैसे लोगों की मृत्यु हमें सिर्फ दुखी नहीं, जागरूक करने के लिए होती है। हमें पूछना चाहिए खुद से क्या हमारी चुप्पी ने आनंद को मार दिया? क्या हम सिर्फ देखने वाले थे, और अब फिर से मूक दर्शक बनेंगे? क्या हम इस परिवार को छोड़ देंगे… उसी ‘आज-कल’ की भीड़ में?

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उनकी पाँच बेटियाँ जब किसी स्कूल में दाखिला लेंगी, तो शायद उनकी टीचर कहे "पिता का नाम?" और बच्ची जवाब देगी "आनंद झा… वो जो समाज को दहेजमुक्त करना चाहते थे..." मित्रों, ये सिर्फ एक नाम नहीं है ये एक झंकार है, एक पुकार है, एक अपील है कि उठो, क्योंकि जो गया है, वो लौटकर नहीं आएगा… लेकिन उसका सपना अब हमारे कंधों पर है। श्रद्धांजलि नहीं, वचन दो कि अब कोई और आनंद झा यूँ बेआवाज ना जाए…