जब पद्मभूषण शारदा सिन्हा की संतानें पहुंचीं मां श्यामा के चरणों में चुनरी में लिपटी स्मृतियां, आस्था में भीगी आंखें और दरभंगा की धड़कनों में गूंजती मां की मधुर आवाज़

यह शहर सिर्फ ईंट-पत्थरों का नहीं, यह स्मृतियों, संस्कृति और श्रद्धा की हवाओं में बहता हुआ एहसास है। और उस एहसास की सबसे मधुर आवाज़ थीं लोकगायिका पद्मभूषण शारदा सिन्हा। अब जब वो नहीं हैं, तो भी उनकी विरासत सांस ले रही है मां श्यामा की धूप-बत्ती में, घंटियों की झंकार में, और उस मंदिर की पवित्र हवाओं में जहां हर श्रद्धालु अपनी पीड़ा छोड़ आता है. पढ़े पुरी खबर........

जब पद्मभूषण शारदा सिन्हा की संतानें पहुंचीं मां श्यामा के चरणों में चुनरी में लिपटी स्मृतियां, आस्था में भीगी आंखें और दरभंगा की धड़कनों में गूंजती मां की मधुर आवाज़
जब पद्मभूषण शारदा सिन्हा की संतानें पहुंचीं मां श्यामा के चरणों में चुनरी में लिपटी स्मृतियां, आस्था में भीगी आंखें और दरभंगा की धड़कनों में गूंजती मां की मधुर आवाज़

दरभंगा: यह शहर सिर्फ ईंट-पत्थरों का नहीं, यह स्मृतियों, संस्कृति और श्रद्धा की हवाओं में बहता हुआ एहसास है। और उस एहसास की सबसे मधुर आवाज़ थीं लोकगायिका पद्मभूषण शारदा सिन्हा। अब जब वो नहीं हैं, तो भी उनकी विरासत सांस ले रही है मां श्यामा की धूप-बत्ती में, घंटियों की झंकार में, और उस मंदिर की पवित्र हवाओं में जहां हर श्रद्धालु अपनी पीड़ा छोड़ आता है।

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शनिवार की सुबह मां श्यामा मंदिर परिसर कुछ अलग ही भाव में डूबा था। न तो मेला था, न कोई बड़ा आयोजन फिर भी माहौल कुछ भारी, कुछ हल्का, कुछ श्रद्धामय था। मशहूर लोकगायिका स्व. शारदा सिन्हा की संतानें पुत्र अंशुमान सिन्हा और पुत्री वंदना सिन्हा मां श्यामा के दरबार में दर्शन करने पहुंचे। दोनों की आंखों में नमी थी, मगर चेहरे पर संतोष। शायद मां को याद करते हुए, उसी रास्ते को दोहरा रहे थे, जहां शारदा सिन्हा बार-बार आया करती थीं।

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वंदना सिन्हा ने धीमे स्वर में कहा: "जब मां दरभंगा आती थीं, तो मां श्यामा मंदिर आना उनकी पहली प्राथमिकता होती थी। आज वो नहीं हैं, पर उनकी आस्था और उनका मार्गदर्शन हमें यहां तक खींच लाया है। ये वही सीढ़ियां हैं, जिन्हें मां ने अनगिनत बार चूमा था।" यह संवाद जब मंदिर के गर्भगृह में गूंजा, तो जैसे मां श्यामा की मूर्ति भी उस आवाज़ को सुनकर थोड़ी और दीप्त हो उठी।

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मां की चुनरी में लिपटी श्रद्धा: मंदिर न्यास समिति की प्रभारी सह सचिव मधुबाला सिन्हा ने उन्हें परंपरानुसार मां की चुनरी ओढ़ाई। यह सिर्फ एक औपचारिकता नहीं थी, यह एक गहरे भाव का प्रतीक था जैसे किसी भक्त की संतानों को मां श्यामा ने फिर से अपनी गोद में भर लिया हो।मधुबाला सिन्हा ने चुनरी ओढ़ाते समय कहा "शारदा दीदी मां की बड़ी भक्त थीं। आज उनके बच्चे यहां आए हैं, तो ऐसा लगता है जैसे मां स्वयं आज यहां आई हैं।" साथ ही उन्हें एक भव्य स्मारिका भी भेंट की गई, जिसमें मां श्यामा की प्रतिमा अंकित थी स्थायी स्मृति के रूप में।

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जब आंसू बने श्रद्धा के मोती: इस आयोजन में कोई बड़ी भीड़ नहीं थी, मगर जो भी उपस्थित थे, वो एक-एक क्षण को जैसे आंखों में भर लेना चाहते थे। मंदिर के प्रभारी प्रबंधक रमानाथ झा और अन्य सहयोगी वहां मौन भाव से खड़े रहे। किसी ने कुछ नहीं कहा, मगर मौन भी कभी-कभी सबसे गूंजता हुआ संवाद होता है।

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अंशुमान सिन्हा ने बहुत भावुक होकर कहा: "हमारे लिए यह सिर्फ एक दर्शन नहीं, मां की स्मृति को संजोने का अवसर है। जब-जब मां श्यामा के सामने खड़ा होता हूं, तो मां (शारदा सिन्हा) की छवि आंखों के सामने तैर जाती है।"

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दरभंगा, जहां स्मृतियां सांस लेती हैं: दरभंगा की भूमि पर शारदा सिन्हा सिर्फ एक कलाकार नहीं थीं, वो संस्कृति की जीवंत मूर्ति थीं। मिथिला पेंटिंग में जैसे हर रंग एक कहानी कहता है, वैसे ही शारदा सिन्हा की हर रचना में मिथिला की आत्मा बसती थी। आज जब उनकी संतानें मां श्यामा के दरबार में आईं, तो दरभंगा ने उन्हें सिर झुका कर स्वागत किया। यह सिर्फ परिवार का भावनात्मक क्षण नहीं था, यह पूरा मिथिला, पूरा दरभंगा उनके साथ भावविभोर था।

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मां नहीं रही, मगर मां की ममता जीवित है: शारदा सिन्हा अब हमारे बीच नहीं हैं, मगर उनकी आवाज़, उनकी भक्ति और उनका भाव सब कुछ आज भी जीवित है। मां श्यामा मंदिर में जब भी कोई उनके गीतों को गुनगुनाता है, तो लगता है "शारदा दीदी यहीं कहीं हैं, आंखें मूंदे मां को देख रही हैं, और शायद यही कह रही हैं मेरी संतानों, तुम ठीक राह पर हो।"