जब ज़िंदगी ने मुँह मोड़ा और मौत ने भी पहचानने से इनकार किया दरभंगा की गलियों से उठी कबीर सेवा संस्थान की वो चिता, जो इंसानियत की आखिरी लौ बन गई
मिथिला की शान, सांस्कृतिक विरासतों की नगरी, जहाँ की धरती अक्सर कविताओं और संगीत की गूँज से भर उठती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक तस्वीर और भी उभरकर सामने आई जो दिखाती है कि किसी शहर की असली ताक़त उसकी सभ्यता और संवेदना में निहित होती है, न कि केवल उसकी महलों और हवेलियों में. पढ़े पुरी खबर.......

दरभंगा: मिथिला की शान, सांस्कृतिक विरासतों की नगरी, जहाँ की धरती अक्सर कविताओं और संगीत की गूँज से भर उठती है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एक तस्वीर और भी उभरकर सामने आई जो दिखाती है कि किसी शहर की असली ताक़त उसकी सभ्यता और संवेदना में निहित होती है, न कि केवल उसकी महलों और हवेलियों में।
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पिछले एक सप्ताह में आठ अज्ञात शव मिलने का समाचार इस शख्सियत की उजागर करता है एक ऐसी जिम्मेदारी की, जो अक्सर अनदेखी कर दी जाती है। इन शवों में जान बंद थी, पहचान नहीं; और तब एक संस्था ने ख़ामोशी से, बिना किसी सोशल मीडिया ड्रामे के, उनकी अंतिम यात्रा की जिम्मेदारी उठाई। यह रिपोर्ट दरभंगा के प्रत्येक उस पहलू को शब्द देती है जो दिल के अनसुने, आँखों के अनदेखे, और कानों के अनसुने स्तर पर चल रहा है।
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कबीर सेवा संस्थान शांतिपूर्ण पथ पर निर्भीक: कबीर सेवा संस्थान, उस शहर का वह अँधेरा रोशन करने वाला दीपक है, जो बिना उजाले की मांग किए, केवल सेवा का प्रकाश देता है। इस संस्था ने पिछले एक सप्ताह में सात अज्ञात शवों की विधिवत अंत्येष्टि की, इस कर्तव्य के लिए किसी सरकारी सहायता की प्रतीक्षा नहीं की बल्कि अपनी आंतरिक श्रद्धा और सामाजिक दायित्व से प्रेरित हो उठे। यह संस्था न सिर्फ़ विधिवत संस्कार करती है, बल्कि मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से पहचान हेतु भी निवेदन करती है। यह निवेदन केवल 'जानकारी' का माध्यम नहीं, बल्कि आदमियत का सम्मान मांगता है।
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अज्ञात शव जिनमें छुपा एक जीवन: इन आठ शवों की परछाई से एक-एक जीवन की कहानी उजागर होती है। ये केवल संख्या नहीं, बल्कि दरभंगा की उन अनकह घटनाओं की गूँज हैं जहाँ पचास, साठ, अड़सठ वर्ष की उम्र तक जीवन ने अपना परचम लहरा दिया, लेकिन मरकर भी पहचान खो गई।
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पहला शव (8 जून) लगभग 60 वर्षीय पुरुष, दरभंगा अस्पताल में इलाज के दौरान जीवन त्याग गया। परिजन ने छोड़ दिया, पता गलत था, और पहचान असंभव हो गई।
दूसरा शव: अधेड़ महिला, रेल लाइन के पास अशोक पेपर मिल थाना क्षेत्र में पड़ी मिली।
तीसरा शव: लगभग 65 वर्षीय पुरुष, लहेरियासराय थाना क्षेत्र, अस्पताल में इलाज के बाद मृत्यु; पहचान नहीं मिली।
चौथा शव: मनिगाछी थाना अंतर्गत रेल लाइन पार मिली लगभग 50 वर्षीय महिला।
पांचवां शव: नगर थाना अंतर्गत, टावर के पास मिला 60 वर्षीय पुरुष।
छठा शव: मब्बी थाना अंतर्गत, राष्ट्रीय राजमार्ग पर अज्ञात वाहन की चपेट में आने से 60 वर्षीय पुरुष की मृत्यु हो गई।
सातवां शव: दरभंगा अस्पताल में गंभीर अवस्था में भर्ती 35 वर्षीय युवक, मनगढ़ंत पता बताकर छोड़ गया गया, और बाद में फरार हो गया।
आठवां शव: बहादुरपुर थाना क्षेत्र का, जिसकी पहचान नहीं हो सकी अभी तक उसकी अंतिम यात्रा भी नहीं हो सकी। इन आंकड़ों में सिर्फ मृत्यु नहीं, एक समाज का वह चेहरा है जो पहचान, जाति, भाषा या पहचान संबंधी अधिकार से वंचित हो गया।
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अंत्येष्टि प्रक्रियाएँ कबीर सेवा का सच्चा संघर्ष: कबीर सेवा संस्थान ने इन शवों की अंत्येष्टि के लिए कोई सरकारी फंड का इंतज़ार नहीं किया। उन्होंने अपनी आत्मिक आस्था, समाजसेवा की भावना, और स्वयं दान में जुटाए गए मौद्रिक संसाधनों का प्रयोग किया। यह रिपोर्ट इस बात का जिक्र करती है कि किस तरह से सतही दिखने वाला ये समाज वास्तव में गहरे मानवता के मूल्यों से जुड़ा हुआ है।
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7 शवों की विधिवत अंत्येष्टि 12 जून से 19 जून तक विभिन्न घाटों और धार्मिक स्थानों में की गई।
8वां शव बहादुरपुर थाना क्षेत्र का शव, क्योंकि विधिवत दस्तावेजों में खामी थी, उसे संस्थान द्वारा अंत्येष्टि नहीं की गई, और मामले की प्रक्रिया बाकी है।
पोस्टमार्टम प्रक्रिया कबीर सेवा संस्थान ने पुलिस अधीक्षक तक पहुंचकर अनुरोध किया कि पोस्टमार्टम के दिन ही शव की सूचना उन्हें दी जाए, ताकि वे समय पर सामग्री, मैनपावर और संसाधनों के साथ तैनात रह सकें।
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सरकारी सहयोग अभी तक कोई सरकारी राशि नहीं आई, और न ही संस्था ने कोई महंगाई भत्ता मांगा, पर अब उन अज्ञात शवों की संख्या बढ़ने से संस्था की चिंता बलवती हो गई है। यह सब एक संस्था की दृढ़ता, प्राथमिकता और सतत मानवता की प्रतिबद्धता की दास्तां कहता है।
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प्रशासन और पुलिस संवाद और सहयोग: संस्थान के सदस्यों ने स्थानीय एसएसपी एवं पुलिस प्रशासन से मिलकर समन्वित योजना की बात कही। उसका सार सरल है जिसने जो पहचना नहीं, उसे दफन करने से पहले पहचान की आखिरी राह तक ले जाया जाए। यदि समय पर सूचना दी जाए, तो निष्क्रिय शव भी किसी अखिल मानवता का प्रतिनिधित्व मानकर सेवा के साथ विदा किया जा सकता है। प्रशासन और पुलिस का यह कदम, बहादुरपुर मामले में हो रही देरी को देखते हुए, दर्शाता है कि अगर भावना मजबूत हो और संवाद खुला हो तो सामाजिक पहलू संरक्षित रह सकता है।
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कबीर सेवा की विशेष पहल अस्थि कलश और विसर्जन: कबीर सेवा संस्थान ने न केवल शवों की अंतिम यात्रा की, बल्कि अस्थि कलशों के संग्रहण और विसर्जन की भी व्यवस्था की। उनका कहना है कि जब तक कोई दावा न करे, तब तक ये कलश सुरक्षित रखे जाते हैं, और एक वर्ष बाद विधिवत सिमरिया घाट या अन्य किसी धार्मिक स्थान पर प्रवाहित किए जाते हैं।
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12वें वार्षिकोत्सव (11 जून) को 80 कलशों का विसर्जन सिमरिया घाट में हुआ।
कोविड-19 की मृत्युओं के लिए 2021 के अंत में 238 अस्थिकल्पशों का विधिवत विसर्जन किया गया था।
यह पहल आत्मा और संस्कृति दोनों का सम्मान है जहाँ मौत के बाद भी पहचान की लौ जिंदा रहती है, और मृतकों को समाज का हिस्सा माना जाता है।
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सामाजिक संवाद और मीडिया पहचान की अंतिम उम्मीद: संस्थान ने स्थानीय मीडिया और सोशल मीडिया को आवाज देने का माध्यम बनाया। शवों का फोटो, पहनावा, नज़ियों के विवरण से लेकर तारीख़ और स्थान तक सभी का विवरण साझा किया गया, ताकि कोई पहचान सके या परिजन मिल सकें। यह न केवल संवेदना का माध्यम है, बल्कि एक सामाजिक दायित्व कि व्यक्ति, चाहे जीवन के आखिरी समय में अज्ञात हो, फिर भी मानवीय गरिमा से सम्मान पाये।
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आर्थिक जरूरत और सहयोग मानवता की पुकार: संस्थान ने बताया कि उन्होंने आर्थिक सहयोग जनता से पाया है बिना सरकारी धन के। परंतु जब शवों का आंकड़ा आठ तक पहुंच गया, तो संसाधन की कमी और बढ़ गई। संस्था ने समुदाय से अपील की ताकि वे इसे एक जन-उपक्रम के रूप में स्वीकार करें और आर्थिक मदद दें। यह अपील नहीं, एक अहंकारी हस्तक्षेप है जो सिर्फ मानवता को संरक्षित करने का प्रयास है। यह दिखाता है कि मानवता को बचाने की राह सिर्फ प्रशासनिक नहीं, बल्कि सामाजिक आंदोलन के माध्यम से चलती है जहाँ हर व्यक्ति खुद को जिम्मेदार मानता है।
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मानवता की अंतिम यात्रा: इस रिपोर्ट की गहराई केवल तथ्यों में नहीं बल्कि भावनाओं और मानवीय ऊर्जा के प्रवाह में है। आठ शव, सात अंत्येष्टियाँ, एक बचा शव, पोस्टमार्टम की प्रक्रियाएँ, अनुसंधान, पहचान के प्रयास ये सब एक जीवन और एक समाज के अंतिम अभ्यर्थना की कहानी कहते हैं।
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पहचान वापिस आकर मृत व्यक्ति को सम्मान देने जैसा एक मानव अधिकार है।
अंत्येष्टि एक कर्तव्य से बढ़कर एक मानवतावोध है।
संस्थान की भूमिका दिखाती है कि जब सिस्टम चूकता है तब समाज अपना आत्मनिर्भरता का रास्ता चुनता है।
पुलिस–प्रशासन का समन्वय बताता है कि सहयोग और संवाद से आपदा को कम किया जा सकता है।
मानवता और संस्था एक-दूसरे से जुड़े हैं एक बिना दूसरे के अधूरे हैं।
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दरभंगा की आत्मा का प्रतिबिंब: दरभंगा वह नगरी है जो कहानी कहती रहती है कोरानाओं की गलियों से लेकर महलों की छतों तक। परंतु इन आठ शवों की गूँज, कबीर सेवा संस्थान की अँधेरी यात्रा, और प्रशासन–समाजिक संवाद यह सब मिलकर एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाते हैं: क्या हमारी पहचान सिर्फ़ जीवन के लिए होती है? या क्या मनुष्यता पहचान से भी परे होती है? क्या शवों को अंतिम सम्मान सिर्फ सरकारी कृत्य है, या एक सामाजिक प्रतिक्रया?
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इस रिपोर्ट में उनका चेहरा सामने आता है परिचयविहीन, पहचानविहीन, फिर भी सम्मानित। कबीर सेवा संस्थान का चेहरा सामने आता है बिना सरकारी पोशाक के, फिर भी आत्म-समर्पित। पुलिस प्रशासन का चेहरा सामने आता है संवाद में बुना, सहयोग में रचा।
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जब पहचान खो जाती है, तब पहचान वापस लाने की ज़िम्मेदारी मानवता की होती है। दरभंगा की यह यात्रा उदास भी है और उम्मीदों से भरी भी। यह कहानी न केवल शवों की आहट है, बल्कि एक मानव समाज की प्रतिबिंधा भी है कि जब हम बुनियादी पहचान वापस दिलाने लगेंगे, तब हमारा रस्मों पर आधारित समाज सिर्फ़ प्रस्तुति नहीं, सार्थकता ले सकेगा।