जब जेल की दीवारों से रिसा लहू और न्याय घुटता रहा ताले में बंद: कमलेश यादव की गला रेत हत्या पर 'मिथिला जन जन की आवाज़' की रिपोर्ट ने उघाड़ा दरभंगा जेल के भीतर का खूनी षड्यंत्र, बंसल की चाकू जैसी सोच और सिस्टम की सड़ी चुप्पी पर पड़ा कलम का हथौड़ा

यह कोई सामान्य अपराध कथा नहीं है। यह उस मानसिकता की बानगी है, जहाँ अधिकार, अहंकार और अस्तित्व की लड़ाई एक टीवी रिमोट से शुरू होकर किसी की गर्दन तक जा पहुँचती है। बिहार की प्राचीन नगरी दरभंगा की जेल में उपजे इस संघर्ष की शुरुआत तो मात्र एक मनोरंजन के साधन पर नियंत्रण को लेकर हुई थी, लेकिन इसके नीचे दबी थी एक क्रूर सोच, एक गैंगवार की परछाई, और एक समाजिक तंत्र की असफलता की करुण कथा. पढ़े पुरी खबर........

जब जेल की दीवारों से रिसा लहू और न्याय घुटता रहा ताले में बंद: कमलेश यादव की गला रेत हत्या पर 'मिथिला जन जन की आवाज़' की रिपोर्ट ने उघाड़ा दरभंगा जेल के भीतर का खूनी षड्यंत्र, बंसल की चाकू जैसी सोच और सिस्टम की सड़ी चुप्पी पर पड़ा कलम का हथौड़ा
जब जेल की दीवारों से रिसा लहू और न्याय घुटता रहा ताले में बंद: कमलेश यादव की गला रेत हत्या पर 'मिथिला जन जन की आवाज़' की रिपोर्ट ने उघाड़ा दरभंगा जेल के भीतर का खूनी षड्यंत्र, बंसल की चाकू जैसी सोच और सिस्टम की सड़ी चुप्पी पर पड़ा कलम का हथौड़ा

दरभंगा: यह कोई सामान्य अपराध कथा नहीं है। यह उस मानसिकता की बानगी है, जहाँ अधिकार, अहंकार और अस्तित्व की लड़ाई एक टीवी रिमोट से शुरू होकर किसी की गर्दन तक जा पहुँचती है। बिहार की प्राचीन नगरी दरभंगा की जेल में उपजे इस संघर्ष की शुरुआत तो मात्र एक मनोरंजन के साधन पर नियंत्रण को लेकर हुई थी, लेकिन इसके नीचे दबी थी एक क्रूर सोच, एक गैंगवार की परछाई, और एक समाजिक तंत्र की असफलता की करुण कथा।

                                 ADVERTISEMENT

यह घटना बताती है कि जेलों के भीतर भी अपराध पलते-बढ़ते हैं, जहाँ सुधार की आशा व्यर्थ प्रतीत होती है, और बदला लेने की प्रवृत्ति अंधेरे गलियारों में गूंजती रहती है। दरभंगा जेल में घटित यह प्रकरण न केवल प्रशासनिक विफलता की ओर संकेत करता है, बल्कि समाज के उस ताने-बाने को भी उधेड़ देता है, जहाँ अपराध अब चरित्र नहीं, प्रतिष्ठा का पर्याय बन चुका है।

                                ADVERTISEMENT

टीवी रिमोट या सत्ता का प्रतीक: मई की एक उमस भरी दोपहर में दरभंगा जेल की बैरकों में एक सामान्य दिनचर्या चल रही थी। कैदी अपने-अपने समय काटने के तरीकों में लिप्त थे कोई किताब पढ़ रहा था, कोई ताश खेल रहा था, और कुछ कैदी जेल के कॉमन हॉल में लगे टीवी के सामने जमा थे।

                                 ADVERTISEMENT

इसी बीच एक मामूली विवाद उठा किस चैनल पर क्या देखा जाएगा? एक ओर थे बंसल कुमार शुक्ला और उनके साथी रौनक झा, और दूसरी ओर थे केवटी थाना क्षेत्र के कमलेश यादव एवं उनके सहयोगी। कहासुनी, फिर गाली-गलौज और अंततः हाथापाई तक बात पहुँच गई। जेल के अंदर का ये 'टीवी रिमोट विवाद' केवल मनोरंजन की चाह नहीं था, यह जेल के भीतर वर्चस्व की लड़ाई थी। कौन कितना ताकतवर है, कौन किसे झुका सकता है यही प्रश्न था।

                                   ADVERTISEMENT

बदले की आग और साजिश की योजना: जेल की सलाखें बहुत कुछ रोकती हैं, लेकिन बदले की भावना को नहीं। बंसल कुमार शुक्ला, जो बेलाशंकर गाँव के रहनेवाले थे, इस अपमान को भूले नहीं। उनकी मानसिक स्थिति किसी रणभूमि से कम नहीं थी। जेल से छूटने के बाद बदला लेना उनका मकसद बन चुका था। उनके भीतर पनप रहा आक्रोश धीरे-धीरे एक साजिश का रूप लेने लगा।

                                 ADVERTISEMENT

15 मई 2025 की तारीख को नियति ने एक खौफनाक मोड़ लिया। बंसल ने कमलेश यादव को फोन कर बुलाया, स्थान था दरभंगा का दिल्ली मोड़। वो मोड़, जहाँ शहर की रफ्तार और अपराध की योजना एक ही पटरी पर चलते हैं।

                               ADVERTISEMENT

खून से सनी सड़क, और अधमरा शरीर: कमलेश यादव को जैसे ही मोड़ पर बुलाया गया, वहां छिपे अपराधियों ने उस पर धारदार चाकुओं से ताबड़तोड़ वार किया। गला रेत दिया गया, ताकि कोई शंका न बचे। मरा समझ कर उसे सकरी थाना क्षेत्र के बलिया गांव की एक सड़क किनारे फेंक दिया गया। यह कोई हत्या नहीं थी, यह एक दृश्य था उस व्यवस्था की, जो हत्या को एक निजी बदला मान बैठी है।

                                 ADVERTISEMENT

संयोग से जब स्थानीय ग्रामीणों ने उस अधमरे शरीर को देखा, तो तत्काल पुलिस को सूचना दी। सकरी थाना की पुलिस वहां पहुँची और कमलेश की सांसें चलते देख उसे तत्काल एक निजी अस्पताल में भर्ती कराया गया। लेकिन नियति की अंतिम लकीरें खींची जा चुकी थीं। बेहतर इलाज के लिए दरभंगा रेफर किया गया, लेकिन कुछ ही घंटों बाद कमलेश की मृत्यु हो गई।

                                  ADVERTISEMENT

साक्ष्य मिटाने की चतुर चालें: अपराध केवल हत्या में नहीं होता, अपराध की परिपूर्णता सबूतों के मिटने से होती है। बंसल कुमार शुक्ला और उनके साथियों ने सबूतों को भी मिटाने का प्रयास किया। कमलेश का खून सना कपड़ा, जो इस मामले की सबसे अहम कड़ी था, उसे दरभंगा एयरपोर्ट के सामने 52 बीघा के बगीचे में फेंक दिया गया।

                                ADVERTISEMENT

डीएसपी राजीव कुमार के नेतृत्व में जब पुलिस ने बंसल को गिरफ्तार कर गहन पूछताछ की, तब जाकर उसने वह स्थान बताया। विशेष टीम ने जब वहां छापेमारी की, तो कपड़ा बरामद हुआ खून से सना हुआ, मौन गवाह, और न्याय की पुकार करता हुआ।

                                 ADVERTISEMENT

अपराधियों का पृष्ठभूमि और पुलिस की सराहना: मृतक कमलेश यादव और आरोपी बंसल सहित सभी लोग आपराधिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते थे। इनका अतीत बाइक चोरी, शराब तस्करी जैसे मामलों से भरा था। यानी यह हत्या न केवल बदले की भावना से प्रेरित थी, बल्कि अपराध की उस निरंतर धारा का हिस्सा थी, जो हमारे सामाजिक ताने-बाने को सड़ा रही है।

                                ADVERTISEMENT

इस जटिल मामले का जिस संवेदनशीलता और तत्परता से उद्भेदन किया गया, वह निश्चित रूप से दरभंगा पुलिस की सराहना योग्य कार्यशैली को दर्शाता है। डीएसपी राजीव कुमार, सकरी थाना अध्यक्ष मुकेश कुमार और विशेष अनुसंधान टीम की सक्रियता ने यह स्पष्ट कर दिया कि यदि इच्छाशक्ति हो, तो न्याय संभव है।

                                ADVERTISEMENT

जेल सुधारगृह या अपराध की प्रयोगशाला?

यह सवाल अत्यंत प्रासंगिक है कि अगर जेलें ही अपराध की नई स्क्रिप्ट लिखने का केंद्र बन जाएं, तो फिर कानून का भय किसे होगा? क्या जेल में मनोरंजन की मांग इतनी हिंसक हो सकती है? या फिर यह उस मानसिकता की उपज है जहाँ हर अपमान का उत्तर खून से देना ही ‘इज्जत’ कहलाता है?

                                ADVERTISEMENT

दरभंगा की यह घटना जेलों में घटते सामाजिक विघटन, प्रशासनिक लापरवाही और अपराधियों में व्याप्त निर्भीकता की जीती-जागती मिसाल है। एक लोकतांत्रिक समाज में ऐसी प्रवृत्तियाँ न केवल कानून को चुनौती देती हैं, बल्कि आम जनता में भय का वातावरण भी उत्पन्न करती हैं।

                              ADVERTISEMENT

खून की छाया और सवालों की गूंज: कमलेश यादव की हत्या केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं है, यह सामाजिक, कानूनी और प्रशासनिक व्यवस्थाओं की सामूहिक असफलता की त्रासदी है। जब जेल जैसे नियंत्रित क्षेत्रों में भी अपराधियों को साजिश रचने और बदला लेने का अवसर मिलता है, तब यह स्पष्ट हो जाता है कि हमें जेल सुधार की नीतियों, निगरानी व्यवस्था और पुनर्वास की धारणा पर गंभीर पुनर्विचार करना होगा।

                            ADVERTISEMENT

प्रशासन भले ही इस मामले का खुलासा कर ले, हत्यारे गिरफ्तार हो जाएं, पर उस मानसिकता का क्या जो ऐसे अपराधों को जन्म देती है? क्या हम केवल परिणामों से लड़ेंगे या कारणों की शल्यक्रिया करेंगे? यह प्रश्न दरभंगा की सड़कों, जेल की दीवारों और अदालत की चौखटों पर अब भी गूंज रहा है। जवाब हमें ही देना है।