नाजिया हसन की पोस्ट बनी चिनगारी, मशाल जुलूस बना अपराध, और लाठी बनी संवाद की भाषा विश्वविद्यालय थाना के ठीक बीच सड़क पर सिसकता रहा संविधान; इस विवेकहीन अंधेर की कहानी सम्पादकीय प्रमुख आशिष कुमार की लेखनी से

दरभंगा की दोपहर शनिवार को कुछ और ही रंग में रंगी थी। आसमान में धूप सामान्य थी, लेकिन ज़मीन पर गर्मी कुछ अधिक थी यह वह गर्मी नहीं थी जो जून की लू से उठती है, बल्कि यह वह राजनीतिक ताप था जो एक फेसबुक पोस्ट से उठता है, एक मशाल जुलूस में ढलता है और अंततः लाठीचार्ज में तब्दील हो जाता है. पढ़े पुरी खबर.......

नाजिया हसन की पोस्ट बनी चिनगारी, मशाल जुलूस बना अपराध, और लाठी बनी संवाद की भाषा विश्वविद्यालय थाना के ठीक बीच सड़क पर सिसकता रहा संविधान; इस विवेकहीन अंधेर की कहानी सम्पादकीय प्रमुख आशिष कुमार की लेखनी से
नाजिया हसन की पोस्ट बनी चिनगारी, मशाल जुलूस बना अपराध, और लाठी बनी संवाद की भाषा विश्वविद्यालय थाना के ठीक बीच सड़क पर सिसकता रहा संविधान; इस विवेकहीन अंधेर की कहानी सम्पादकीय प्रमुख आशिष कुमार की लेखनी से

दरभंगा की दोपहर शनिवार को कुछ और ही रंग में रंगी थी। आसमान में धूप सामान्य थी, लेकिन ज़मीन पर गर्मी कुछ अधिक थी यह वह गर्मी नहीं थी जो जून की लू से उठती है, बल्कि यह वह राजनीतिक ताप था जो एक फेसबुक पोस्ट से उठता है, एक मशाल जुलूस में ढलता है और अंततः लाठीचार्ज में तब्दील हो जाता है। यह घटना केवल विरोध और पुलिस की कार्रवाई की कहानी नहीं है; यह एक शहर के जनतंत्र के माथे पर उभरे उस पसीने की बूंद है जिसमें धर्म, दल, और अधिकार तीनों घुलते नज़र आते हैं।

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एक पोस्ट और उठती लपटें: कहते हैं शब्दों की आग तलवारों से ज्यादा धारदार होती है। दरभंगा नगर निगम की डिप्टी मेयर नाजिया हसन की सोशल मीडिया पोस्ट में छिपी वही चिंगारी थी, जिसने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर टिप्पणी कर दी। यह पोस्ट महज़ एक मत थी या सोची-समझी राजनीतिक भाषा इसका विश्लेषण करने से ज़्यादा जरूरी यह समझना है कि यह पोस्ट कैसे उस शहर में आक्रोश का कारण बन गई जहाँ आज़ादी और सहिष्णुता की बातें अब सिर्फ़ किताबों में बची हैं। इस पोस्ट के जवाब में भाजपा और कई हिंदू संगठनों ने विरोध स्वरूप मशाल जुलूस निकालने की घोषणा की। यह विरोध एक लोकतांत्रिक प्रक्रिया का हिस्सा था शांतिपूर्ण, घोषणाबद्ध और विचारधारात्मक। लेकिन प्रशासन की आंखों में यह आक्रोश नहीं, अराजकता था।

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मशालें जो जल नहीं पाईं: शनिवार दोपहर से ही विश्वविद्यालय थाना के पुराने भवन के सामने की सड़क, जो कभी सामाजिक संवाद का प्रतीक हुआ करता था, धीरे-धीरे पुलिस और प्रशासन के घेरे में बदलने लगी। जिलाधिकारी और एसएसपी के निर्देशों के तहत भाजपा जिलाध्यक्ष आदित्य नारायण चौधरी मन्ना और उनके समर्थकों पर दबाव बनाया जाने लगा कि वे जुलूस स्थगित करें। परन्तु यह वही क्षण था जहाँ लोकतंत्र और सत्ता का पहला टकराव हुआ।

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कार्यकर्ता नहीं माने। उनका कहना था कि जब डिप्टी मेयर को यह अधिकार है कि वे सार्वजनिक मंच पर संघ पर टिप्पणी करें, तो उन्हें भी यह हक़ मिलना चाहिए कि वे शांति से विरोध प्रकट करें। परंतु हक़ की यह मशाल सत्ता की हवाओं में बुझा दी गई।

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लाठी की भाषा में संवाद: शाम होते-होते, मशालें तो जली नहीं, लेकिन पुलिस की लाठियाँ जरूर बरसीं। विश्वविद्यालय थाना के ठीक सामने बीच सड़क पर उस समय की तस्वीरें किसी युद्धभूमि से कम नहीं थीं एक ओर लोकतांत्रिक अधिकारों की मांग करते लोग, दूसरी ओर कानून-व्यवस्था के नाम पर कार्रवाई करती पुलिस।

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भाजपा जिलाध्यक्ष मन्ना समेत सैकड़ों कार्यकर्ताओं पर लाठीचार्ज किया गया। कुछ घायल हुए, कुछ गिरफ़्तार। लेकिन सबसे ज़्यादा घायल हुआ शहर का भरोसा भरोसा उस तंत्र पर जो विरोध को अपराध और असहमति को अराजकता मानने लगा है।

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भाजपा जिलाध्यक्ष आदित्य नारायण चौधरी मन्ना की अगुआई में शांतिपूर्वक विरोध कर रहे कार्यकर्ताओं को सरेआम पीटा गया। सैकड़ों की संख्या में मौजूद पुलिस बल ने किसी आपातकाल की तरह लाठीचार्ज शुरू किया। जिलाध्यक्ष स्वयं घायल हुए उनके सिर पर और हाथों पर गंभीर चोटें आईं। उनके साथ कई और कार्यकर्ता लहूलुहान हुए, जिन्हें तत्काल डीएमसीएच (दरभंगा मेडिकल कॉलेज अस्पताल) में भर्ती कराना पड़ा। वह सड़क, जो कभी विश्वविद्यालय से लेकर प्रशासन तक संवाद की डोर थी, अब प्रशासनिक दमन की दीवार बन चुकी है। विश्वविद्यालय थाना के सन्नाटे में उस शाम केवल आहें थीं, और लोकतंत्र की लाचार चीख।

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प्राथमिकी और पक्षपात के आरोप: इतिहास गवाह है कि हर सत्ता अपने विरुद्ध उठती आवाज़ों को दबाने के लिए कानून का सहारा लेती है। इस बार भी ऐसा ही हुआ। डिप्टी मेयर नाजिया हसन ने भाजपा नेताओं समेत 24 लोगों पर नामजद प्राथमिकी दर्ज करवा दी। आरोप लगे कि वे उन्हें बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं।

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दूसरी ओर, हिंदू संगठनों ने प्रशासन पर पक्षपात का आरोप लगाया। उनका कहना है कि जब एक निर्वाचित पदाधिकारी खुले मंच पर एक धार्मिक संगठन पर आपत्तिजनक टिप्पणी करती है, तो उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। लेकिन जब जनता शांति से विरोध करना चाहती है, तो लाठीचार्ज होता है, गिरफ्तारियां होती हैं।

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अब आगे क्या: इस पूरे घटनाक्रम ने दरभंगा को दो ध्रुवों में बाँट दिया है एक ओर वे लोग हैं जो प्रशासन के कदम को सही ठहरा रहे हैं, यह कहते हुए कि कानून-व्यवस्था सर्वोपरि है। दूसरी ओर वे हैं जो इसे लोकतंत्र की हत्या बता रहे हैं। अब आगे क्या होगा? यह सवाल पूरे शहर में गूंज रहा है। क्या प्रशासन इस मामले को शांतिपूर्वक सुलझा पाएगा? क्या डिप्टी मेयर अपनी पोस्ट पर कायम रहेंगी? क्या भाजपा और हिंदू संगठन न्यायिक जांच की मांग करेंगे? क्या मीडिया इस मुद्दे को सच्चाई के साथ सामने रख पाएगा या यह भी राजनीति के रंग में रंग जाएगा?

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दरभंगा की आत्मा से सवाल: इस घटना ने केवल प्रशासन, नेता और पुलिस की भूमिका पर सवाल नहीं उठाए, बल्कि आम नागरिकों की आत्मा को भी झकझोर दिया है। क्या हमारे शहर की आत्मा इतनी कमज़ोर हो गई है कि एक पोस्ट पर लाठियाँ बरसने लगें? क्या लोकतंत्र अब महज़ चुनावों तक सीमित रह गया है? क्या असहमति अब अपराध मानी जाएगी?

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इन सवालों का उत्तर सिर्फ़ प्रशासन नहीं, हम सभी को देना है क्योंकि दरभंगा सिर्फ़ एक शहर नहीं, विचारों की साझी विरासत है। और जब विचारों पर पहरा लगे, तो मशालें सिर्फ़ प्रतीक नहीं, आवश्यकता बन जाती हैं।