दरभंगा की उजड़ी उम्मीदें और शिक्षक की बेजुबां मौत एसएसपी साहब, अब वक्त है जनता के भरोसे को फिर से जीता जाए, उतरिए मैदान में, खोजिए और सलटाइए उस दरिंदे को जिसने हमारे गुरु की रूह को गोली मार दी!

बिहार की धरती एक बार फिर अपने ही खून से सींच दी गई है। इस बार किसी बाहुबली के बीच सड़क तांडव की कहानी नहीं, न ही किसी फिल्मी अंदाज़ का अपराधी छाया हुआ है। इस बार निशाना बना है वह इंसान जो समाज के सबसे पवित्र धंधे में लिप्त था शिक्षक.... पढ़े पुरी खबर......

दरभंगा की उजड़ी उम्मीदें और शिक्षक की बेजुबां मौत एसएसपी साहब, अब वक्त है जनता के भरोसे को फिर से जीता जाए, उतरिए मैदान में, खोजिए और सलटाइए उस दरिंदे को जिसने हमारे गुरु की रूह को गोली मार दी!
दरभंगा की उजड़ी उम्मीदें और शिक्षक की बेजुबां मौत एसएसपी साहब, अब वक्त है जनता के भरोसे को फिर से जीता जाए, उतरिए मैदान में, खोजिए और सलटाइए उस दरिंदे को जिसने हमारे गुरु की रूह को गोली मार दी!

बिहार की धरती एक बार फिर अपने ही खून से सींच दी गई है। इस बार किसी बाहुबली के बीच सड़क तांडव की कहानी नहीं, न ही किसी फिल्मी अंदाज़ का अपराधी छाया हुआ है। इस बार निशाना बना है वह इंसान जो समाज के सबसे पवित्र धंधे में लिप्त था शिक्षक। दरभंगा में भरवाड़ा-कमतौल पथ पर बुधवार की सुबह एक ऐसे शिक्षक को गोलियों से भून दिया गया जो रोज़ साइकिल पर बैठकर ज्ञान बाँटने निकलता था। जिस हाथ में किताबों की थैली होनी थी, वहां अब मौत की छाया है।

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घटना का मंजर: जहां स्याही की जगह खून बहा: रसूलपुर निस्ता, एक छोटा सा गांव, जहां एक प्राथमिक विद्यालय में मंसूर आलम बच्चों को पढ़ाया करते थे। वही मंसूर आलम बुधवार की सुबह साइकिल से विद्यालय जा रहे थे, जब अपराधियों ने घात लगाकर उन्हें गोली मार दी। विद्यालय पहुंचने से पहले ही शिक्षक ज़मीन पर गिर पड़े। उनके शरीर से बहता खून इस बात का गवाह बन गया कि अब बिहार में एक शिक्षक भी सुरक्षित नहीं। उनकी साइकिल वहीं पड़ी थी मूक गवाह, स्थिर, और प्रतीक्षा करती हुई, मानो पूछ रही हो: “क्या यही इनकी तनख्वाह थी?”

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मंसूर आलम: एक साधारण शिक्षक, असाधारण कर्तव्यबोध: मधुबनी के बेनीपट्टी के निवासी मंसूर आलम भरवाड़ा शंकरपुर में किराए पर रहते थे। उनकी दुनिया सीमित थी बच्चे, किताबें और वह साइकिल। न राजनीति से मतलब, न कोई दुश्मनी। एक ऐसे आदमी की हत्या जिसने पूरी ज़िंदगी सिर्फ़ अक्षरों में भरोसा किया।

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अब आपकी बारी है, एसएसपी साहब! दरभंगा की धरती पर यह घटना कोई छोटी बात नहीं। यह उस कानून व्यवस्था की परीक्षा है जिसके भरोसे आम आदमी सुबह अपने घर से निकलता है। अब गेंद दरभंगा के पुलिस कप्तान के पाले में है। एसएसपी साहब, अब आपके कंधे पर जनता का भरोसा है। वो भरोसा जो अक्सर खोता रहा है। लेकिन यह वक्त है उसे फिर से अर्जित करने का। मैदान में उतरिए, तह तक जाइए और नोच निकालिए उस दरिंदे को जो इस घटना के पीछे छिपा है। उसे सामने लाइए जिसने एक गुरु के प्राण ले लिए।

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प्रशासन से पूछे जाने वाले सवाल: क्या शिक्षक होना अब जानलेवा है? क्या दरभंगा में अपराधियों को अब कोई भय नहीं? क्यों नहीं है स्कूल जाने वालों की कोई सुरक्षा?

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समाज की चुप्पी: यह भी एक अपराध है: और हम क्या कर रहे हैं हम? पोस्ट शेयर करके आगे बढ़ गए? किसी ने कैंडल मार्च नहीं निकाला, किसी छात्र ने रोष नहीं दिखाया, किसी नेता ने संवेदना जताने की औपचारिकता भी नहीं निभाई। यही चुप्पी सबसे ज़्यादा डरावनी है। यह चुप्पी साजिश है, यह चुप्पी समाज की आत्महत्या है।

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माफ़ नहीं किया जाना चाहिए ये अपराध: शिक्षक की हत्या सिर्फ हत्या नहीं होती, यह सभ्यता की जड़ों पर प्रहार है। यह हमला है उस नींव पर जो बच्चों के भविष्य की इमारत बनाती है। मंसूर आलम की हत्या का जवाब दरभंगा पुलिस को देना ही होगा। न केवल अपराधी की गिरफ्तारी से, बल्कि एक उदाहरण बनाकर। वरना अगली गोली किसी और मासूम के सीने में जाएगी और समाज फिर एक टीचर को खो देगा बिना कोई सबक सीखे।