जब कानून के रक्षक बने कानून के भक्षक: जमालपुर थाना के अजीत कुमार की गिरफ़्तारी नहीं, परंतु निलंबन की पटकथा… SSP दरभंगा की कार्यवाही ने किया एक नई परंपरा का सूत्रपात!
ये महज़ एक निलंबन नहीं है। ये उस सड़े हुए तंत्र के भीतर दबे दर्द की वह चीख़ है, जिसे आम आदमी वर्षों से चुपचाप सुनता रहा है। ये उस मौन की कराह है जो पुलिस चौकियों के भीतर घुटता रहा, और अब जाकर एक ऑडियो क्लिप के ज़रिए बाहर निकला है। ये कहानी है जमालपुर थाना में पदस्थापित पुलिस अवर निरीक्षक (पु०अ०नि०) अजीत कुमार की, जिन्होंने कानून की वर्दी पहन कर कानून के साथ आँख-मिचौली खेली और अब जब पर्दा उठा, तो भीतर से निकला सड़ांध मारता भ्रष्टाचार, अहंकार और अकर्मण्यता का कुचक्र. पढ़े पुरी खबर.......

दरभंगा, बिहार। ये महज़ एक निलंबन नहीं है। ये उस सड़े हुए तंत्र के भीतर दबे दर्द की वह चीख़ है, जिसे आम आदमी वर्षों से चुपचाप सुनता रहा है। ये उस मौन की कराह है जो पुलिस चौकियों के भीतर घुटता रहा, और अब जाकर एक ऑडियो क्लिप के ज़रिए बाहर निकला है। ये कहानी है जमालपुर थाना में पदस्थापित पुलिस अवर निरीक्षक (पु०अ०नि०) अजीत कुमार की, जिन्होंने कानून की वर्दी पहन कर कानून के साथ आँख-मिचौली खेली और अब जब पर्दा उठा, तो भीतर से निकला सड़ांध मारता भ्रष्टाचार, अहंकार और अकर्मण्यता का कुचक्र।
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जब कानून मांगने लगे कीमत, न्याय बिकने लगे बोली पर… वह 1 फरवरी 2025 का दिन था। झगहुआ गाँव के मोहम्मद नाजीर आलम का धड़कता हुआ दिल दरभंगा की ठंडी दीवारों के बीच हिम्मत जुटा रहा था। उनके द्वारा दर्ज कराए गए कांड संख्या-09/2025 में न्याय की उम्मीद की जाती थी, लेकिन वहां 'इन्वेस्टिगेशन' की फाइलों से पहले ₹15,000 की माँग की गई। यह आरोप कोई हवा में नहीं उड़ा; साक्ष्यस्वरूप एक ऑडियो क्लिप दरभंगा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) तक पहुँची, जिसने सिस्टम की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। यह कोई मामूली आरोप नहीं था यह उस ज़हर का खुला दस्तावेज था जिसे जनता, विवशता के नाम पर वर्षों से पी रही थी।
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“गवाही” के बहाने छुट्टी और फिर बर्दाश्त के बाहर हुई भाषा: 22 मई 2025 को अजीत कुमार गवाही के नाम पर न्यायालय, दरभंगा गए। गवाही समाप्त होते ही तीन दिन के अवकाश की ‘स्वेच्छा’ से उन्होंने थाना से अनुपस्थिति को अपना अधिकार समझा। उसी शाम उनके निजी मोबाइल पर जब कांड संख्या-35/25 को लेकर पूछताछ की गई, तो शब्दों की मर्यादा तार-तार हो गई। अधिकारी नहीं, जैसे गली का गुंडा बोल रहा हो तु-तड़ाक, अपशब्दों की बौछार और पुलिस की गरिमा को लज्जित करने वाली भाषा। इस घटना पर सनहा संख्या-517, दिनांक-22.05.2025, दर्ज की गई। मगर ये कोई पहला अपराध नहीं था, बस पानी सिर के ऊपर चला गया था। थानाध्यक्ष की पुकार “यह अधिकारी नहीं, मनबढ़ू राज बना बैठा है”:
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थानाध्यक्ष, जमालपुर द्वारा समर्पित प्रतिवेदन में अजीत कुमार को ‘मनबढ़ू’ और ‘आदेश उल्लंघनकारी’ बताया गया। हर बार जब भी इन्हें कोई ज़िम्मेदारी दी जाती, वे विवाद खड़ा कर देते। अनुसंधान में स्वेच्छाचारिता, कांडों में पैसे की माँग, और थानाध्यक्ष से सीधे टकराव ये सब उनके 'रोज़मर्रा के कार्यप्रणाली' का हिस्सा बन चुके थे। 28 अप्रैल 2025 को भी इसी संबंध में ज्ञापांक-315/25 के माध्यम से एक विस्तृत प्रतिवेदन भेजा गया था लेकिन उस वक़्त शायद आवाज़ दीवारों से टकरा कर रह गई थी। पर इस बार नाजीर आलम की ऑडियो क्लिप ने खामोशी को तोड़ डाला।
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एक एसडीपीओ का क़लम और एसएसपी की मुहर जब सड़ांध पर चला न्याय का चाबुक: बिरौल अनुमंडल पुलिस पदाधिकारी द्वारा की गई जाँच में आरोपों की पुष्टि हुई और जब यह अनुशंसा दरभंगा के वरीय पुलिस अधीक्षक के टेबल पर पहुँची, तो देर नहीं लगी। विभागीय अनुशासन और कार्य प्रणाली की मर्यादा की रक्षा करते हुए SSP दरभंगा ने पु०अ०नि० अजीत कुमार को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि निलंबन अवधि में उनका मुख्यालय पुलिस केन्द्र, दरभंगा रहेगा तथा वे केवल सामान्य जीवन यापन भत्ता पर रहेंगे।
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निलंबन ही क्यों? गिरफ़्तारी कब? यह सवाल हर ज़हन में कौंध रहा है क्या केवल निलंबन ही पर्याप्त है? यदि एक अधिकारी जनता से धन वसूलता है, अनुसंधान में जानबूझकर लापरवाही करता है, फिर उच्चाधिकारियों को अपशब्द कहता है, तो क्या यह केवल विभागीय अपराध है? या यह उस लोक सेवक की 'लोकद्रोहिता' है, जिसकी जगह निलंबन नहीं, जेल की काल कोठरी होनी चाहिए? हालाँकि विभागीय नियमावली में ऐसे मामलों में पहले अनुशासनिक कार्यवाही, फिर आपराधिक केस की प्रक्रिया अपनाई जाती है, परन्तु समाज आज यह प्रश्न पूछता है “क्या निलंबन से जनता का खोया विश्वास लौट सकता है?”
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SSP दरभंगा की कार्रवाई सड़ते तंत्र में एक जंतु नुमा कैंची: इस समूचे घटनाक्रम में सबसे उजला पहलू दरभंगा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक का यह कठोर निर्णय रहा, जो ‘सामाजिक विश्वास’ और ‘वर्दी की गरिमा’ को बचाने का एक उदाहरण बन गया है। यह वह समय था जब चुप रहना आसान था मगर SSP ने कानून की ज़मीन को उस वर्दीधारी से बचाया, जो कानून के नाम पर उसकी लाश ढो रहा था। आज जब पूरे प्रदेश में पुलिसकर्मियों पर आम आदमी की आस्था डगमगाने लगी है, तब दरभंगा से उठी यह कार्रवाई बता रही है कि सिस्टम में अब भी वो अंग हैं, जो न केवल देख सकते हैं, बल्कि सुन भी सकते हैं और ज़रूरत पड़ने पर न्याय का चाबुक भी चला सकते हैं।
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क़ानून की रक्षा करने वाले जब स्वयं क़ानून को बेचने लगें, तो वो समाज सड़ने लगता है। लेकिन यदि उस सड़े हिस्से को समय रहते काट दिया जाए तो पूरा तंत्र स्वस्थ रह सकता है। अजीत कुमार जैसे अधिकारी केवल नाम नहीं हैं ये वो वायरस हैं, जो पूरे प्रशासन को संक्रमित करते हैं। और SSP दरभंगा द्वारा लिया गया यह निर्णय एक 'सर्जिकल ऑपरेशन' है, जो अन्य जिलों को भी संदेश देता है:"अब हर ऑडियो में सन्नाटा नहीं होगा... किसी दिन वो SSP तक पहुँच भी सकता है!"