"ज़मीन के नक्शे पर सुस्ती की लकीरें: मंत्री सरावगी का ग़ुस्सा, बेपरवाह अफसरशाही और रैयतों की उम्मीदों की जंग"

बिहार की ज़मीन इन दिनों करवट बदल रही है—काग़ज़ों में भी और हक़ीक़त में भी। ‘विशेष भूमि सर्वेक्षण’ के नाम पर सरकार एक ऐसा नक्शा खींच रही है जिसमें हर रैयत को उसकी ज़मीन का पूरा-पूरा हक़ मिले। लेकिन इस नक्शे पर सुस्ती, लापरवाही और सरकारी ठहराव की जो लकीरें उभर रही हैं, उन्होंने राज्य के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री संजय सरावगी को आगबबूला कर दिया है. पढ़े पुरी खबर.....

"ज़मीन के नक्शे पर सुस्ती की लकीरें: मंत्री सरावगी का ग़ुस्सा, बेपरवाह अफसरशाही और रैयतों की उम्मीदों की जंग"
ज़मीन के नक्शे पर सुस्ती की लकीरें: मंत्री सरावगी का ग़ुस्सा, बेपरवाह अफसरशाही और रैयतों की उम्मीदों की जंग; फोटो: मिथिला जन जन की आवाज

पटना: बिहार की ज़मीन इन दिनों करवट बदल रही है—काग़ज़ों में भी और हक़ीक़त में भी। ‘विशेष भूमि सर्वेक्षण’ के नाम पर सरकार एक ऐसा नक्शा खींच रही है जिसमें हर रैयत को उसकी ज़मीन का पूरा-पूरा हक़ मिले। लेकिन इस नक्शे पर सुस्ती, लापरवाही और सरकारी ठहराव की जो लकीरें उभर रही हैं, उन्होंने राज्य के राजस्व एवं भूमि सुधार मंत्री संजय सरावगी को आगबबूला कर दिया है।

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शनिवार को राजधानी पटना के भू-अभिलेख एवं परिमाप निदेशालय में जब राज्यभर के 38 जिलों के बंदोबस्त पदाधिकारी एकत्र हुए, तो वह बैठक कम और जवाबदेही की अदालत ज़्यादा लग रही थी। मंत्री सरावगी का अंदाज़ आज किसी मॉडरेटर का नहीं, बल्कि एक जनप्रतिनिधि का था जिसे नतीजे चाहिए—बिना बहाने, बिना कोताही।

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“काम नहीं करोगे तो कुर्सी छोड़ो”—मंत्री का सीधा संदेश: मंत्री ने साफ़ शब्दों में कहा, “यह सर्वेक्षण महज़ सरकारी काम नहीं, यह रैयतों का अधिकार है। अगर अधिकारी ही अपनी ज़िम्मेदारी को हल्के में लेंगे, तो वे इस सेवा के लायक नहीं।” ऐसा कम ही होता है जब कोई मंत्री खुले मंच से अपने ही महकमे पर इस कदर तमतमाया हो। सूत्रों के मुताबिक, मंत्री ने कुछ ज़िलों के अफसरों के कामकाज पर फ़ील्ड रिपोर्ट के हवाले से सवाल भी दागे खासकर पूर्वी और पश्चिमी चंपारण जैसे ज़िलों में जहां स्वघोषणा पत्र और वंशावली जमा करने की गति इतनी धीमी है कि उसमें ‘कछुए की चाल’ भी तेज़ लगे।

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"स्वघोषणा में सुस्ती या सुबूत छुपाने की साजिश?"

विशेष भूमि सर्वेक्षण में स्वघोषणा पत्र (प्रपत्र-2) और वंशावली की अहम भूमिका है। ये दस्तावेज़ रैयतों को उनके पैतृक अधिकारों का आधिकारिक सबूत बनाते हैं। लेकिन जब इनकी भरने की प्रक्रिया ही ठप पड़ जाए, तो संदेह होता है कि क्या यह महज़ सुस्ती है, या कहीं नीचे से ऊपर तक कुछ छुपाने की कोशिश?

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एक अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं—“कई स्थानों पर प्रभावशाली ज़मींदार वर्ग अब भी रैयतों को दबाकर रखे हुए हैं। स्वघोषणा नहीं करने दे रहे, क्योंकि वे जानते हैं कि एक बार खतियान अपडेट हो गया तो उनके पुराने दावे टिक नहीं पाएंगे।”

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"फील्ड में अफसर कम, फाइल में भारी बातें ज़्यादा"

मंत्री ने कहा कि सर्वे कैंपों का निरीक्षण हफ्ते में कम से कम एक बार अनिवार्य हो, लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और है। कई अंचलों में शिविर तो लगते हैं, पर वहाँ अफसरों की कुर्सियाँ ख़ाली पड़ी होती हैं। न रैयतों को जानकारी, न सहूलियत। तकनीक तो सरकार ने दे दी, लेकिन ‘मानव इरादा’ अभी भी अनुपस्थित है।

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सरकार ने दावा किया है कि नवंबर 2025 तक सर्वे कार्य पूरा कर लिया जाएगा, लेकिन जानकार मानते हैं कि मौजूदा गति से यह मुमकिन तभी होगा जब काम में निजी कंपनियों जैसी फुर्ती लाई जाए। सरकार ने 10 हजार नए कर्मचारी फील्ड में उतारे हैं, मगर उनकी ट्रेनिंग और तैनाती की पारदर्शिता को लेकर भी कई सवाल हैं।

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"चुनाव से पहले सर्वे पूरा करने की हड़बड़ी, या असल बदलाव की कोशिश?"

मंत्री सरावगी ने दो टूक कहा—“हम विधानसभा चुनाव 2025 से पहले इस कार्य को पूरा देखना चाहते हैं।” राजनीतिक जानकार इसे सत्ता की साख से जोड़कर देख रहे हैं। ज़मीन से जुड़े विवादों का हल अगर समय पर हो गया, तो यह सरकार के लिए ‘ग्रामीण वोटबैंक’ में बड़ी पकड़ बना सकता है।

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लेकिन क्या सिर्फ़ टारगेट तय कर देने से सच्चाई बदल जाएगी? ज़मीन पर जो रफ़्तार दिख रही है, वो अब भी लस्त-पस्त है।

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“ज़मीन के सच के लिए लड़ाई लंबी है”: विशेष सर्वेक्षण को लेकर जितनी आशाएँ हैं, उतनी ही बाधाएँ भी हैं। कहीं जानकारी की कमी है, कहीं स्थानीय स्तर पर विरोध। मंत्री का ग़ुस्सा जायज़ है, पर क्या यह केवल नाराज़गी तक सीमित रहेगा या असल कार्रवाई भी दिखेगी?

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सरकार ने सर्वेक्षण कार्य की निगरानी के लिए एक विशेष टीम भी बनाई है। लेकिन जब तक ज़मीनी कर्मचारी अपनी मानसिकता नहीं बदलते, तब तक कोई भी टीम, कोई भी तकनीक, कोई भी मंत्री... इस सुधार को गति नहीं दे पाएगा। बिहार में चल रहा यह विशेष सर्वेक्षण केवल एक सरकारी योजना नहीं, बल्कि ग्रामीण न्याय की नींव है। अगर यह ढंग से लागू हो गया, तो यह न सिर्फ़ ज़मीन के रिकॉर्ड को पारदर्शी बनाएगा, बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे ज़मीनी झगड़ों का भी हल देगा। लेकिन अगर सुस्ती और लापरवाही हावी रही, तो यह अवसर एक और “सरकारी सपना” बनकर रह जाएगा।