"जब राख ने रच दी रश्में: कमतौल की एक बेटी, एक आग, और संवेदना की साक्षात् संध्या"
कभी-कभी एक छोटी सी घटना, एक मामूली सी चिंगारी, समूचे जीवन को तहस-नहस कर देती है। 31 मार्च 2025 को दरभंगा जिले के कमतौल थाना क्षेत्र के एक कोने में बसे एक छोटे से गांव में ऐसी ही एक घटना घटी। यह घटना न केवल एक परिवार की खुशियों को लील गई, बल्कि सामाजिक चेतना, मानवीय सहयोग और प्रशासनिक उत्तरदायित्व के उस स्वरूप को सामने लाई, जो आज के समाज में दुर्लभ होता जा रहा है. पढ़े पुरी खबर........

दरभंगा:- कभी-कभी एक छोटी सी घटना, एक मामूली सी चिंगारी, समूचे जीवन को तहस-नहस कर देती है। 31 मार्च 2025 को दरभंगा जिले के कमतौल थाना क्षेत्र के एक कोने में बसे एक छोटे से गांव में ऐसी ही एक घटना घटी। यह घटना न केवल एक परिवार की खुशियों को लील गई, बल्कि सामाजिक चेतना, मानवीय सहयोग और प्रशासनिक उत्तरदायित्व के उस स्वरूप को सामने लाई, जो आज के समाज में दुर्लभ होता जा रहा है। यह केवल एक समाचार नहीं है—यह एक दस्तावेज़ है उस आशा का, जो राख में भी जीवित रहती है। यह वर्णन है उस शक्ति का, जो संवेदनाओं से उपजती है और उस समाज की तस्वीर है, जो आज भी सामूहिक जिम्मेदारी निभाने की ताकत रखता है।
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हरिश्चंद्र यादव के घर में आग लगने की सूचना कोई मामूली खबर नहीं थी। यह एक ऐसा धमाका था, जिसने न केवल दीवारें गिराईं, बल्कि भविष्य की योजनाओं को भी भस्म कर दिया। आग कैसे लगी, इसका कोई स्पष्ट कारण नहीं मिल पाया—शायद गैस सिलेंडर लीक था, शायद किसी शरारती तत्व की करतूत थी, या फिर किसी दुर्भाग्य का अवतरण। जो भी रहा हो, परिणाम भयावह था।
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दो लाख रुपये नकद, सोने-चांदी के गहने, शादी के लिए खरीदी गई साड़ियाँ, बर्तन, पलंग, गद्दे, कपड़े, ड्रेसिंग टेबल—सब कुछ जलकर राख हो गया। ये केवल भौतिक वस्तुएँ नहीं थीं, बल्कि वे सपने थे जो हर माता-पिता अपनी बेटी की शादी के लिए संजोता है। बेटी कविता कुमारी, जिसकी शादी की तारीख तय थी, घर की दहलीज पर बैठी थी। आँखें शून्य में थीं और मन सवालों के भंवर में डूबा हुआ।
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आग बुझ चुकी थी, पर घर की दीवारों पर चुप्पी की कालिख थी। पिता निढाल थे, माँ का रो-रोकर गला सूख चुका था। गाँव के लोग सहानुभूति जता रहे थे, लेकिन हरिश्चंद्र के भीतर का तूफान कोई नहीं देख पा रहा था। "शादी कैसे होगी?"—यह सवाल केवल उनके होंठों पर नहीं, आत्मा पर भी दर्ज था। बेटी के भविष्य का सपना जो आँखों में पल रहा था, अब राख की परतों में दबा पड़ा था।
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ऐसे समय में जब हर तरफ मौन छाया था, तब एक कैमरा और एक कलम लेकर पहुंचे एक स्थानीय पत्रकार। उन्होंने किसी फिल्मी नायक की तरह नहीं, बल्कि एक सजग नागरिक की तरह सच्चाई को सामने रखने का जिम्मा उठाया। घटनास्थल की तस्वीरें, जलते कमरे, विलखती मां, और चुप बैठी कविता—इन सब को उन्होंने शब्दों में समेटा और दुनिया के सामने रखा। खबर प्रकाशित हुई। सोशल मीडिया पर वायरल हुई। वायरल शब्द का यहां महत्व है, क्योंकि यह वह चिंगारी बनी जिसने समाज की आत्मा को झकझोर दिया।
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जब यह खबर बिहार सरकार के मंत्री और क्षेत्रीय विधायक जीवेश मिश्रा तक पहुँची, तो उन्होंने तुरंत संज्ञान लिया। 51 हजार रुपये की आर्थिक सहायता दी और कार्यकर्ताओं को आदेश दिया कि लड़की की शादी की पूरी जिम्मेदारी ली जाए। वे खुद सासाराम में थे, लेकिन वीडियो कॉल के माध्यम से कविता से बात की। वीडियो में उनका यह वाक्य खासा वायरल हुआ: "बेटी, घबराओ मत। मैं तुम्हें आकर आशीर्वाद दूँगा। तुम मेरी भी बेटी हो।"
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संतोष राय, सीताराम यादव, ललन पासवान जैसे लोगों ने मिलकर चंदा इकट्ठा करना शुरू किया। महिलाएँ एकजुट हुईं। गाँव के युवाओं ने मंडप, साउंड सिस्टम, सजावट और भोजन की योजना बनाई। शादी को उसी तारीख पर, उसी उत्साह से करने का निर्णय लिया गया। यह वह क्षण था जब गाँव की गलियाँ सिर्फ रास्ते नहीं रहीं, वे समर्पण की गलियाँ बन गईं।
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फूलो देवी कहती हैं, "शादी तो सपना थी। लगा अब सब खत्म। लेकिन फिर भगवान ने रास्ता दिखाया। लोगों ने जो साथ दिया, उससे विश्वास जगा कि इंसानियत जिंदा है।" कविता ने बहुत कम कहा। लेकिन उसकी आँखों में कृतज्ञता थी। समाज के सहयोग से उसका जीवन फिर पटरी पर आ रहा था। वह समझ गई थी कि दुःख स्थायी नहीं होता, और इंसान अगर साथ हों, तो हर अंधेरे में एक दरवाज़ा खुलता है। 25 अप्रैल की सुबह, गाँव एक उत्सव स्थल बन चुका था। पीले पर्दों से सजे मंडप, झालरों की चमक, ढोलक की थाप, और हर कोने में दौड़ते लोग यह दृश्य किसी मंत्री की शादी जैसा लग रहा था।
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कविता दुल्हन बनी। बारात आई। वर को मोटरसाइकिल, कपड़े, पेटी, बक्सा, फर्नीचर आदि भेंट किए गए। शादी विधिपूर्वक संपन्न हुई।
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कई बार राजनीतिक सहयोग को प्रचार का माध्यम माना जाता है, लेकिन यहाँ जो हुआ वह दिखावटी नहीं था। मंत्री जीवेश मिश्रा हों या नगर विकास मंत्री संजय झा दोनों ने सहयोग दिया लेकिन कैमरे से दूर रहकर। यह उदाहरण है कि अगर इच्छाशक्ति हो, तो सत्ता भी सेवा बन सकती है। हरिश्चंद्र यादव कहते हैं, "अगर पत्रकार ये खबर नहीं उठाते, तो मंत्री क्या, गाँव वाले भी शायद साथ नहीं आते। उन्होंने हमें दुनिया से जोड़ा।" यह वह पत्रकारिता थी, जो न बिकती है, न झुकती है—बस आवाज़ उठाती है। शादी के बाद गाँव में एक नया उत्साह था। लोग कहते सुने गए, "बेटियाँ बोझ नहीं होतीं, वो तो समाज को जोड़ने की डोरी होती हैं।"
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यह शादी नहीं, एक विचार की जीत थी। एक नई परंपरा का आरंभ। 31 मार्च को राख हुई दीवारें, 25 अप्रैल को रोशनी से जगमगाईं। यह घटना बताती है कि जब समाज, प्रशासन और पत्रकारिता एक साथ चलें, तो कोई भी सपना अधूरा नहीं रहता। यह समाचार नहीं, एक जीवनगाथा है। यह संदेश है कि हम अकेले नहीं हैं—अगर आग लगे, तो बुझाने वाले हाथ भी मौजूद हैं। अगर अंधेरा हो, तो दीपक जलाने वाले दिल भी हैं।