राजीव रौशन की सादगी, सौम्यता और सेवा का जब समापन हुआ, तो दरभंगा की हवाओं ने भी उन्हें सलामी दी; और जब कौशल कुमार ने संकल्प के साथ बागडोर थामी, तो लगा मानो प्रशासनिक धरती पर नवसृजन की ऋतु आ गई हो 'मिथिला जन जन की आवाज़' प्रस्तुत करता है एक विशेष साहित्यिक चित्रण उस विरल क्षण का, जब इतिहास, वर्तमान और भविष्य एक ही मंच पर एक-दूसरे से गले मिले…
कुछ विदाईयाँ इतिहास नहीं, एहसास बन जाती हैं। कुछ आगमन उम्मीद नहीं, दायित्व बनकर उतरते हैं। और कुछ क्षण… वक़्त की किताब में नहीं, हृदय की भीतरी दीवारों पर उकेर दिए जाते हैं। ऐसा ही एक क्षण दरभंगा ने देखा, महसूस किया और जिया जब जिलाधिकारी राजीव रौशन ने दरभंगा की धरती को प्रणाम किया, और कौशल कुमार ने वही धरती संभाली. पढ़े पुरी खबर.......

दरभंगा। कुछ विदाईयाँ इतिहास नहीं, एहसास बन जाती हैं। कुछ आगमन उम्मीद नहीं, दायित्व बनकर उतरते हैं। और कुछ क्षण… वक़्त की किताब में नहीं, हृदय की भीतरी दीवारों पर उकेर दिए जाते हैं। ऐसा ही एक क्षण दरभंगा ने देखा, महसूस किया और जिया जब जिलाधिकारी राजीव रौशन ने दरभंगा की धरती को प्रणाम किया, और कौशल कुमार ने वही धरती संभाली।
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राजीव रौशन: नाम नहीं, कर्म की कविता: 146 जिलाधिकारियों के क्रम में 145वां स्थान लेना शायद एक औपचारिक पहचान थी, लेकिन राजीव रौशन ने दरभंगा में जो छवि बनाई, वह किसी शिलालेख की तरह स्थायी हो गई। उनकी आवाज़ में आदेश कम, अपनापन अधिक था। उनके निर्णयों में कठोरता कम, न्याय अधिक था। वे कुर्सी पर नहीं, कर्म के पथ पर बैठकर जिलाधिकारी बने।
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सादगी से सजे प्रशासन के दिवस: उनके कार्यकाल में दरभंगा ने प्रशासन को किसी दूर के दफ्तर की बजाय अपने आस-पास महसूस किया। बाढ़ हो, स्वास्थ्य संकट, कोरोना की चुनौती हो या विकास योजनाओं की नाजुक डोर राजीव रौशन का नेतृत्व हर मोर्चे पर ईमानदारी की एक लौ की तरह रहा। वे हर निरीक्षण में केवल अधिकारी नहीं, एक सजग संरक्षक थे। उन्होंने दरभंगा के गांवों को नज़दीक से देखा, स्कूलों की स्थिति को सुधारा, अस्पतालों की ज़रूरतों को महसूस किया और अधिकारियों के बीच काम करने की नैतिक संस्कृति गढ़ी।
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मिथिला की संस्कृति ने जिसे अपना बना लिया: जब मंगलवार को विदाई समारोह में मिथिला की पवित्र परंपरा के अनुसार पाग और चादर से उनका सम्मान किया गया, तो वह केवल एक रस्म नहीं थी वह इस धरती की आत्मा का आलिंगन था। विदाई के उस क्षण में राजीव रौशन ने जब कहा “मिथिला की यादें इतनी गहरी हैं कि इसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता।” तो दरभंगा की आत्मा उस क्षण थोड़ी देर के लिए स्तब्ध हो गई। मानो किसी प्रियजन को अंतिम बार देख रही हो।
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कर्मचारियों की आंखों में आदर की नमी: दरभंगा समाहरणालय के कर्मचारी, अधिकारी, पुलिस अधीक्षक, डीडीसी, बीडीओ, सीओ, शिक्षक, यहां तक कि जनप्रतिनिधि सबकी आंखों में एक ही भाव था ‘साहब जैसे लोग बार-बार नहीं आते’। उनके कार्यकाल की सबसे बड़ी उपलब्धि यह नहीं थी कि उन्होंने कितनी योजनाएं लागू कीं, बल्कि यह थी कि उन्होंने आमजन का विश्वास जीता।
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कौशल कुमार: नई उम्मीदों के साथ दरभंगा की बागडोर: 146वें जिलाधिकारी के रूप में श्री कौशल कुमार ने जैसे ही मंगलवार को पदभार ग्रहण किया, वैसे ही शहर में एक नई आशा की बयार चल पड़ी। उनकी पहली प्रतिक्रिया ने यह स्पष्ट कर दिया कि वे केवल कुर्सी ग्रहण करने नहीं आए हैं, बल्कि ज़िम्मेदारियों की गहराइयों में उतरने को तैयार हैं। “विधि व्यवस्था को सुदृढ़ बनाना प्राथमिकता होगी। सरकार की योजनाएं जमीन पर पूरी पारदर्शिता से उतारी जाएंगी।” यह उनका वादा नहीं था यह उनकी प्रशासनिक दृष्टि की झलक थी।
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कुशल प्रशासनिक पृष्ठभूमि का आगमन: कौशल कुमार का प्रशासनिक रिकॉर्ड पहले से ही प्रभावशाली रहा है। वे बिहार के उन अफसरों में गिने जाते हैं जिनकी निर्णय क्षमता, धरातलीय निरीक्षण और जनता से संवाद की शैली प्रभावशाली मानी जाती है। दरभंगा जैसे ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से संवेदनशील जिले के लिए यह नियुक्ति एक उपयुक्त विकल्प कही जा सकती है।
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संवाद का दरवाज़ा खुला रहेगा: कौशल कुमार: उन्होंने स्पष्ट किया कि जनता, जनप्रतिनिधि, मीडिया और प्रशासन के बीच संवाद की लकीरें टूटी नहीं रहने दी जाएंगी। “जनभागीदारी ही सच्चे प्रशासन की आत्मा है।” उनका यह वक्तव्य दरभंगा की जनता के लिए आश्वस्त करने वाला था।
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एक चला गया, पर छाया छोड़ गया… एक आया है, रोशनी लेकर: राजीव रौशन की विदाई कोई साधारण घटना नहीं थी। वे जिस सौम्यता से गए, उसमें गर्व भी था और गहरी आत्मीयता भी। कौशल कुमार जिस तरह आए हैं, उसमें अनुभव की गरिमा है और ऊर्जा का प्रवाह।
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विदाई और स्वागत: दो किनारे, एक ही प्रशासन की नदी: दरभंगा ऑडिटोरियम का वह मंच, जहां दोनों अधिकारी एक साथ खड़े थे मानो एक सदी के किनारे एक दूसरे से हाथ मिला रहे थे। वरिष्ठ उप समाहर्ता वृषभानु चंद्रा और अपर समाहर्ता राकेश रंजन के संचालन और धन्यवाद ज्ञापन में भी भावनाओं की छाया स्पष्ट थी।
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दरभंगा की धरती ने देखा, अनुभव किया, और याद रख लिया: इतिहास तिथियों से नहीं, क्षणों से बनता है। और दरभंगा ने मंगलवार को एक ऐसा क्षण जिया, जो आने वाले वर्षों तक स्मृति में रहेगा। जहां एक व्यक्ति अपनी कर्मभूमि को नमन कर गया, और दूसरा उसी भूमि को अपना कर्तव्य मानते हुए कदम रख गया।