"दरभंगा पुलिस की ‘ईमानदारी योजना’: आरोपी छोड़वाइए, सोने के टॉप्स गिरवी रखिए, और अगर विरोध करें तो जाति सुनिए, धमकी पाइए क्या शानदार लोकतंत्र है!"
दरभंगा की उपजाऊ माटी से न्याय की खुशबू नहीं, अब बेबसी की बदबू उठती है। ये वो ज़मीन है जहाँ एक मां अपने बेटे को छुड़ाने के लिए अपने जेवर गिरवी रखती है, और बदले में उसे मिलता है अपमान, धमकी और न्याय व्यवस्था की गंदी दलाली। यह कहानी किसी फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं, बल्कि सिमरी थाना कांड संख्या 129/25 के आरोपी इंद्र कुमार राम की है, जिसकी गिरफ्तारी के बाद शुरू होता है एक ऐसा कड़वा अध्याय जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को आइना दिखाता है. पढ़े पुरी खबर........

दरभंगा की उपजाऊ माटी से न्याय की खुशबू नहीं, अब बेबसी की बदबू उठती है। ये वो ज़मीन है जहाँ एक मां अपने बेटे को छुड़ाने के लिए अपने जेवर गिरवी रखती है, और बदले में उसे मिलता है अपमान, धमकी और न्याय व्यवस्था की गंदी दलाली। यह कहानी किसी फिल्म की स्क्रिप्ट नहीं, बल्कि सिमरी थाना कांड संख्या 129/25 के आरोपी इंद्र कुमार राम की है, जिसकी गिरफ्तारी के बाद शुरू होता है एक ऐसा कड़वा अध्याय जो हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को आइना दिखाता है।
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28 अप्रैल की रात, भराठी गांव का इंद्र कुमार राम शराब के नशे में अपनी पत्नी के साथ मारपीट करता है। सिमरी थाना पुलिस उसे हिरासत में लेती है। ब्रेथ एनालाइज़र जांच में शराब की पुष्टि होती है। पीटीसी राकेश कुमार पांडेय के बयान पर उत्पाद अधिनियम और बीएनएस की धाराओं में प्राथमिकी दर्ज होती है। मामला कानून की चौखट में पहुँच चुका था, लेकिन यहीं से शुरू होता है एक और स्याह अध्याय वर्दीधारी भ्रष्टाचार का।
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इंद्र की मां लीला देवी थाने पहुँचती हैं—आँखों में बेटे को बचाने की आस, हाथ में खाली बटुआ और दिल में ममता का बोझ। वो गुहार लगाती हैं कि बेटा निर्दोष है, या कम से कम एक मौका दिया जाए। लेकिन थाने की चौखट पर कोई कानून नहीं बैठा था, वहाँ बैठा था एएसआई अनिल कुमार तिवारी जिसने लीला देवी को बेटे की रिहाई के बदले छह हजार रुपये की मांग की।
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लीला देवी के पास ना नकद था, ना गहनों की भरमार। मगर एक मां की मजबूरी क्या नहीं करा सकती? उसने अपने कान के सोने के टॉप्स गिरवी रखे—गांव के एक जेवरात की दुकान पर, बेटे के नाम पर। ब्याज पर पैसे उठाए, और वो छह हजार रुपये एएसआई को दे दिए।
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रिश्वत की ये गाथा इतनी साफ-सुथरी नहीं थी। स्थानीय चौकीदार हनुमान पासवान का बेटा कुणाल इस लेन-देन का बिचौलिया बना। वही पैसा एएसआई तक पहुँचा। लेकिन जब यह मामला लीक हुआ, तो कुणाल रुपये वापस करने गया, पर केवल पाँच हजार ही लौटाए, यह कहते हुए कि "एक हजार तो कोर्ट में खर्च हुआ।" न्याय अब दरभंगा में कोर्ट की फाइलों में नहीं, चौकीदार के बेटे की जेब में हो गया है।
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लीला देवी ने साफ इनकार कर दिया—उसे न्याय चाहिए था, 'कमीशन कटौती' नहीं।
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इस केस ने तब और भयावह रूप लिया जब एक स्थानीय युवक (जो कथित रूप से एएसआई का सहयोगी बताया जा रहा है) लीला देवी के पास पहुंचा और एएसआई के पक्ष में बयान देने का दबाव बनाया। यहाँ तक कहा गया, “अगर वीडियो नहीं दिया, तो देखेंगे तुम्हारा बेटा जेल से बाहर कैसे आएगा।”
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जब लीला देवी ने मना किया, तो उसे धमकी दी गई, जातिसूचक शब्दों का प्रयोग किया गया। ये न सिर्फ एक मां का अपमान था, बल्कि संविधान की आत्मा को चीर देने जैसा अपराध भी। जब मामला तूल पकड़ने लगा तो दरभंगा के एसएसपी जगुनाथ रेड्डी जला रेड्डी हरकत में आए। कमतौल सर्किल इंस्पेक्टर सुरेश कुमार राम को जांच का जिम्मा सौंपा गया। महिला के बयान का वीडियो फुटेज, थाने का सीसीटीवी, मोबाइल कॉल रिकॉर्ड और लेन-देन की पर्ची सहित सभी साक्ष्य एकत्र किए जा रहे हैं। एसएसपी का कहना है कि “जांच रिपोर्ट आने पर कार्रवाई की जाएगी।”
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पर सवाल यह है कि कब? और क्या इस बार भी 'कार्रवाई होगी' के नाम पर सब कुछ फाइलों में दब जाएगा? प्रश्न बेबाक हैं और जवाब गुमशुदा:
क्या एएसआई पर सिर्फ विभागीय जांच पर्याप्त है, जब मामला खुली रिश्वतखोरी का है?
क्या चौकीदार का बेटा केवल एक मोहरा था या इस गंदे खेल में कई चेहरे हैं?
क्या लीला देवी को सुरक्षा मिलेगी, या उसे धमकियाँ मिलती रहेंगी?
और सबसे अहम—क्या कानून गरीबों के लिए अलग और वर्दीवालों के लिए अलग है?
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यह मामला सिर्फ एक एएसआई के भ्रष्ट आचरण का नहीं, बल्कि पूरी पुलिस व्यवस्था के नैतिक दीवालिएपन का संकेतक है। जब न्याय बिकता है, तो गहना नहीं, जमीर गिरवी रखा जाता है। जब रिश्वत माँ से वसूली जाती है, तो असल में पूरे समाज की आत्मा को गिरवी रख दिया जाता है। अब वक्त है कि जांच समिति नहीं, एक मजबूत उदाहरण पेश किया जाए। वरना कल को हर मां को अपने टॉप्स बेचने होंगे, और हर चौकीदार का बेटा इंसाफ का दलाल बना घूमेगा।