"जब वर्दी ने तोड़ी बाबूगिरी की जंजीरें: डीजीपी का ऐतिहासिक आदेश, थानों में लौटेगा न्याय का जवान, खत्म होगी सिफारिशों की स्याही और दफ्तरों की गुलामी!"

कभी लोककथा के वीरों की भांति खाकी वर्दी पहनने वाले नौजवान जब पुलिस प्रशिक्षण केंद्रों से निकलते हैं, तो उनकी आँखों में केवल पद और पेंशन की चमक नहीं होती। उनमें होता है—उत्साह, उमंग, एक ज़िद, एक आक्रोश... कि कुछ बदलेंगे, कुछ थामेंगे, कुछ तोड़ेंगे और बहुत कुछ जोड़ेंगे। परंतु जब यही सशस्त्र युवा दफ्तर की दीवारों में कैद होकर फ़ाइलों के पीछे धूल झाड़ने लगते हैं, तब उनकी आँखों का वह आक्रोश धीरे-धीरे एक 'क्लर्क' की झुकी हुई गर्दन में तब्दील हो जाता है। पुलिस की सबसे बड़ी विडंबना यही रही है—उसे मैदान चाहिए, उसने मेज़ पकड़ा दी गई. पढ़े पुरी खबर......

"जब वर्दी ने तोड़ी बाबूगिरी की जंजीरें: डीजीपी का ऐतिहासिक आदेश, थानों में लौटेगा न्याय का जवान, खत्म होगी सिफारिशों की स्याही और दफ्तरों की गुलामी!"
"जब वर्दी ने तोड़ी बाबूगिरी की जंजीरें: डीजीपी का ऐतिहासिक आदेश, थानों में लौटेगा न्याय का जवान, खत्म होगी सिफारिशों की स्याही और दफ्तरों की गुलामी!"; फोटो: मिथिला जन जन की आवाज

बिहार/पटना: कभी लोककथा के वीरों की भांति खाकी वर्दी पहनने वाले नौजवान जब पुलिस प्रशिक्षण केंद्रों से निकलते हैं, तो उनकी आँखों में केवल पद और पेंशन की चमक नहीं होती। उनमें होता है—उत्साह, उमंग, एक ज़िद, एक आक्रोश... कि कुछ बदलेंगे, कुछ थामेंगे, कुछ तोड़ेंगे और बहुत कुछ जोड़ेंगे। परंतु जब यही सशस्त्र युवा दफ्तर की दीवारों में कैद होकर फ़ाइलों के पीछे धूल झाड़ने लगते हैं, तब उनकी आँखों का वह आक्रोश धीरे-धीरे एक 'क्लर्क' की झुकी हुई गर्दन में तब्दील हो जाता है। पुलिस की सबसे बड़ी विडंबना यही रही है—उसे मैदान चाहिए, उसने मेज़ पकड़ा दी गई।

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जो जवान भीड़ नियंत्रण की शिक्षा लेकर निकला, वह प्रिंटर की टोनर भरने लगा। जो दारोगा अपराधी को पकड़ने का हुनर लेकर आया, वह व्हाट्सएप ग्रुप के स्क्रीनशॉट निकालने लगा। और इस पूरे खेल में सबसे ज़्यादा नुकसान हुआ—जनता का, कानून का, और उस पुलिस व्यवस्था का जिसके कंधे अब भी भारी हैं, पर कमर झुक चुकी है। पर अब... एक आदेश ने वह सन्नाटा तोड़ा है। डीजीपी ने कागज़ को काटा है और वर्दी को मैदान में लौटाया है।

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कभी किसी थाने के भीतर झाँक कर देखिए। डेस्क के पीछे बैठा जवान, न थकता है, न चलता है, न बोलता है। वह केवल दस्तावेज़ टाइप करता है, चाय लाता है, साहब की कार की चाबी पकड़ता है, और फाइलें घसीटता है। क्या यह वही जवान है जो रांची, हाजीपुर या दरभंगा के प्रशिक्षण केंद्रों में गोली चलाना, केस डायरी लिखना, या धारा 144 का पालन कराना सीख कर निकला था?

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यह सवाल पिछले वर्षों में सड़ता रहा। कोई पूछता नहीं था, और जिनके पास उत्तर थे, वे खामोश थे। इस व्यवस्था ने एक पूरी पीढ़ी को ‘लिपिक’ बना दिया। ‘पुलिसकर्मी’ अब शब्द भर था, कर्म नहीं।

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जब राज्य के पुलिस महानिदेशक ने यह फरमान जारी किया कि अब से किसी भी नव नियुक्त जवान को कम-से-कम पांच वर्षों तक कार्यालय या विशेष इकाई में नियुक्त नहीं किया जाएगा, तो यह केवल एक ‘ट्रांसफर पॉलिसी’ नहीं थी। यह उस बहरूपिए सिस्टम को आइना दिखाने वाला वाक्य था जिसने ‘फील्ड ड्यूटी’ को सज़ा और ‘दफ्तर की ड्यूटी’ को पुरस्कार बना दिया था।

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अब यह स्पष्ट है—जवानों की ऊर्जा मेज़ के पीछे नहीं, मैदान के बीच निखरेगी। साइबर अपराध से लेकर उग्र भीड़ नियंत्रण तक का प्रशिक्षण पाने वाले जवान यदि नोटशीट तैयार कर रहे हों, तो यह न केवल उनकी प्रतिभा का अपमान है, बल्कि सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी भी है। प्रशिक्षण में राज्य लाखों रुपये खर्च करता है, वर्षों लगते हैं उन्हें तैयार करने में। फिर उन्हें दफ्तर की कुर्सियों पर बाँध देना, ठीक वैसा है जैसे किसी तीरंदाज़ को निशाना लगाने के बजाय पान की दुकान पर बैठा देना।

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डीजीपी का यह आदेश इस अंधेरे चक्र को तोड़ता है।किसी थाने में जाइए, तो वर्दी पहने एक युवक टेबल पर झुका दिखेगा। वह स्टेनो की तरह टाइप कर रहा होगा, दस्तावेज़ों की सिलाई कर रहा होगा, या साहब के मोबाइल की बैटरी चार्ज कर रहा होगा। वह जवान होगा जिसने हाल ही में प्रशिक्षण लेकर ड्यूटी जॉइन की है। उसकी वर्दी नई होगी, जूते चमचमाते होंगे, और आंखों में थकान नहीं, बल्कि बेबसी होगी। बेबसी इसलिए क्योंकि उसने ‘पुलिस’ बनने का सपना देखा था, बाबू बनने का नहीं। उसने वर्दी पहनकर गश्त की कल्पना की थी, न कि एसपी ऑफिस की सीढ़ियां चढ़ने की।

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यह ‘बाबूगीरी’ एक सोची-समझी व्यवस्था थी—जहां प्रशिक्षण के बावजूद थाने खाली रह गए, और नवयुवक जवान साहबों के लिए ‘बहुउपयोगी यंत्र’ बना दिए गए। इस परंपरा ने दोहरापन पैदा किया:जो जवान फील्ड में चाहिए था, वह दफ्तर में बैठा। और जो दफ्तर की जिम्मेदारी में कमजोर था (जैसे होमगार्ड), उसे कानून व्यवस्था संभालनी पड़ी। डीजीपी का यह आदेश, दरअसल, इसी रोग का उपचार है।

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लंबे समय से होमगार्ड को थानों में ‘काम चलाऊ बल’ के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा था। कई बार वे बूढ़े थे, अप्रशिक्षित थे, और सिर्फ़ उपस्थिति दिखाने को भेजे जाते थे। इससे न केवल अपराध नियंत्रण में ढील मिली, बल्कि जनता का विश्वास भी हिला। डीजीपी ने साफ कहा—जहां सीधी भर्ती दारोगा और जवान मौजूद हों, वहां लॉ एंड ऑर्डर की ड्यूटी में होमगार्ड को प्राथमिकता देना नाजायज़ है।

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यह एक महत्वपूर्ण प्रशासनिक रेखा है—जिसने पुलिस और सहायक बल के दायरे स्पष्ट किए हैं। अब: जवान सिर्फ जवान का काम करेगा होमगार्ड की भूमिका सीमित और स्पष्ट होगी इससे थानों की दक्षता तो बढ़ेगी ही, जनता को भी सही समय पर जवाब मिलेगा। जनता की नजरों में पुलिस वह होती है जो गली में हो, गश्त में हो, अपराधी के पीछे हो। जब वही पुलिस दफ्तर में बैठी मिलती है, तो भरोसे का पुल दरकने लगता है। इस आदेश से वह पुल फिर से बनता दिख रहा है। सोचिए जब कोई पीड़ित महिला थाने आती है, और सामने एक जवान मिलता है जो अपराध स्थल पर जाने को तैयार है, न कि उसे “साहब के आने का इंतजार कीजिए” कहकर लौटा देता है। यह बदलाव केवल प्रशासनिक नहीं, सांस्कृतिक है। एक नई पुलिस संस्कृति की नींव पड़ रही है—जहां वर्दी मतलब जवाबदेही।

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प्रशासनिक विवेक की आड़ में जो नियम सालों से तोड़े जाते रहे, यह आदेश अब उन्हें बाध्य करता है। डीजीपी ने स्पष्ट कहा है कि यदि पांच वर्षों से पहले किसी जवान को कार्यालय में तैनात करना हो, तो मेरी अनुमति जरूरी है। यह कोई 'अधिनायकवाद' नहीं, बल्कि नियमों की पुनः प्रतिष्ठा है। इससे जिलों में तैनात एसपी और आईजी भी अब मनमानी नहीं कर पाएंगे। 'खास सिफारिशों' पर कार्यालय ड्यूटी पाने वाले अब लाइन में नहीं लग पाएंगे। यह आदेश केवल जवानों की ड्यूटी नहीं, न्याय की मर्यादा तय करता है।

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राज्य भर के प्रशिक्षण केंद्रों में हजारों जवान हर साल तैयार होते हैं। इनकी ट्रेनिंग कोई सामान्य अभ्यास नहीं होती। इसमें शामिल होते हैं— साइबर क्राइम की जटिलताएं केस डायरी की बारीकियाँ भीड़ नियंत्रण के नियम हथियार संचालन की व्यावहारिक विधियाँ संवैधानिक और कानूनी ज्ञान यह प्रशिक्षण केवल किताबों से नहीं होता—बल्कि पसीने, धूप, और गोलियों की आवाज़ के बीच निखरता है। फिर भी वर्षों से यही प्रशिक्षित बल थानों से गायब रहा। क्यों? क्योंकि उन्हें दफ्तर की गुलामी सौंप दी गई।

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यह प्रशिक्षित बल जब एसी कमरों में बैठकर नोटशीट भरता रहा, तब अपराधी गली में घूमते रहे। यह बर्बादी सिर्फ सरकारी संसाधनों की नहीं थी, यह समाज के आत्मरक्षा तंत्र की बर्बादी थी। डीजीपी का यह आदेश इस दुश्चक्र को तोड़ता है। किसी गाँव के थाने में जाइए। वहाँ अक्सर आपको यही सुनने को मिलेगा—“जवान कम हैं”, “गश्ती गाड़ी नहीं निकली”, “क्राइम सीन पर कोई नहीं पहुँचा।” अब सवाल उठता है—अगर हर साल राज्य में हजारों जवान भर्ती होते हैं, तो थाने क्यों सूने हैं? उत्तर है—क्योंकि जवान दफ्तरों में हैं। थाने केवल भवन नहीं होते। वे न्याय का पहला दरवाज़ा होते हैं। वहाँ: एफआईआर दर्ज होती है महिला की चीत्कार सुनी जाती है पहली सुरक्षा दी जाती है यदि वहीं पर ट्रैनड बल की अनुपस्थिति हो, तो यह लोकतंत्र की पहली परत पर दरार है।

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अब जबकि डीजीपी ने जवानों की तैनाती सीधे थानों और पुलिसलाइन में करने का आदेश दिया है, तब जाकर यह दरार भरने की उम्मीद है। एक स्वस्थ शासन प्रणाली में तीन स्तंभ होते हैं: जनता – जिसे सेवा चाहिए प्रशासन – जो दिशा देता है पुलिस बल – जो जमीन पर काम करता है बीते वर्षों में यह संतुलन टूटा। प्रशासन राजनीतिक दबाव में रहा, जनता अविश्वास में, और जवान ‘बाबूगीरी’ में फंसे। यह आदेश इस टूटे हुए त्रिकोण को फिर से जोड़ता है। जब जवान थानों में होंगे, जनता के बीच होंगे, अपराध के खिलाफ सीधे खड़े होंगे—तो यह लोकतांत्रिक व्यवस्था को भीतर से मजबूत करेगा। यह केवल ड्यूटी का नहीं, दिशा का बदलाव है।

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इस आदेश का प्रभाव तीन स्तरों पर देखा जाना चाहिए: संभावना: पुलिस बल में नई ऊर्जा और कौशल का बेहतर उपयोग होगा परिवर्तन: थानों की क्षमता और जवाबदेही बढ़ेगी चुनौती: क्या यह आदेश ज़मीन पर भी उतरेगा, या फिर नियम पुस्तिका में दबा रह जाएगा? इन सवालों का उत्तर भविष्य देगा, पर शुरुआत आशाजनक है। बिहार की पुलिस व्यवस्था में यह कोई नई बात नहीं कि: कोई नवपदस्थापित दारोगा विधायक के खास होने के कारण सीधे एसपी ऑफिस पहुंच जाता है। कोई जवान नेता की पैरवी से डीएसपी के चेम्बर का स्थायी कर्मचारी बन जाता है। और कोई प्रशिक्षित महिला कांस्टेबल ‘विशेष कार्य’ के नाम पर कार्यालयीन फाइलों में गुम हो जाती है। यह व्यवस्था वर्षों से रही है। इसे कहते हैं—"सत्ता आधारित प्रतिनियुक्ति व्यवस्था"।

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इसने वर्दी को सेवा की नहीं, सुविधा की पोशाक बना दिया था। थानों को खाली कर दिया गया, और दफ्तर जवानों से भर दिए गए। डीजीपी का यह आदेश इस परंपरा को पहली बार कानूनी बाध्यता से रोकता है। अब कोई भी पांच साल से पहले दफ्तर में तैनात नहीं हो सकेगा, जब तक डीजीपी स्वयं इसकी अनुमति न दें। यह एक साहसिक कदम है, और शायद इस व्यवस्था के लिए असहज भी। लेकिन, अगर यह साहस जमीन पर निभाया गया, तो यह बिहार पुलिस के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ होगा। किसी भी आदेश की शक्ति उसकी काली स्याही में नहीं, बल्कि उसके क्रियान्वयन में होती है।

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यही इस आदेश की भी असली परीक्षा है: क्या जिलों के एसपी इसका ईमानदारी से पालन करेंगे? क्या नेतागण अपने 'खास' सिपाहियों को फिर भी कार्यालयों में रखने का दबाव नहीं बनाएँगे? क्या भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद का वह जाल टूटेगा, जो वर्षों से थानों की रीढ़ तोड़ता रहा है? इन सवालों का जवाब हमें समय देगा। लेकिन एक बात स्पष्ट है—अब जन चेतना जागी है। अगर यह आदेश ज़मीन पर लागू हुआ, तो: पुलिस के गश्ती दस्ते मजबूत होंगे अपराध की रोकथाम में तत्परता आएगी जनता का विश्वास लौटेगा और सबसे अहम—जवानों को उनकी वर्दी का आत्मसम्मान मिलेगा।

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हर व्यवस्था का पुनर्जन्म तभी होता है जब वह अपने भीतर की सड़ांध से लड़ने का साहस दिखाए। यह आदेश उसी युद्ध का शंखनाद है। यह सिर्फ जवानों की पोस्टिंग का मुद्दा नहीं है—यह जनतंत्र की रक्षा, प्रशासनिक ईमानदारी, और सामाजिक जवाबदेही की नई परिभाषा है। आज जब एक युवा पुलिसकर्मी अपना प्रशिक्षण पूरा कर फील्ड ड्यूटी को तैयार होगा, तो वह यह जानकर गर्व करेगा कि वह फाइल उठाने नहीं, इंसाफ देने आया है।