संस्कार देने वाली बलशाली भाषा संस्कृत के कारण ही भारत विश्वगुरु था और बनेगा- कुलपति

प्रत्येक व्यक्ति हर क्षेत्र का विशेषज्ञ नहीं हो सकता, पर उसे अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ अवश्य होना चाहिए। अवसर बार- बार नहीं आता, यदि हम एक बार चूक जाते हैं तो वह अवसर दूसरों को मिल जाता है। पढ़ें पूरी खबर

संस्कार देने वाली बलशाली भाषा संस्कृत के कारण ही भारत विश्वगुरु था और बनेगा- कुलपति

दरभंगा :- प्रत्येक व्यक्ति हर क्षेत्र का विशेषज्ञ नहीं हो सकता, पर उसे अपने क्षेत्र का विशेषज्ञ अवश्य होना चाहिए। अवसर बार- बार नहीं आता, यदि हम एक बार चूक जाते हैं तो वह अवसर दूसरों को मिल जाता है। उक्त बातें ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा के कुलपति प्रोफेसर सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग के द्वारा अन्य सहयोगी संस्थाओं- कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय, आर के कॉलेज, मधुबनी के संस्कृत विभाग, स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग जयप्रकाश विश्वविद्यालय, छपरा, केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपति तथा लोक भाषा प्रचार समिति, बिहार के संयुक्त तत्त्वावधान में दिनांक 30- 31 अगस्त, 2022 को "ज्ञान- विज्ञान के क्षेत्र में मिथिला एवं कश्मीर का योगदान : संस्कृत वांग्मय के परिप्रेक्ष्य में" विषयक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में विश्वविद्यालय के जुबली हॉल में आयोजित समापन समारोह में कही।

कुलपति ने कहा कि संस्कार देने वाली बलशाली भाषा संस्कृत के कारण ही भारत विश्वगुरु था और बड़ा विश्वगुरु बनेगा। दर्शन हमें जीवन का सच्चा रास्ता बताता है। यदि ज्ञान- विज्ञान में संस्कार न हो तो वह हमारे लिए बेकार है। कुलपति ने कहा कि आज का दिन ऐतिहासिक है, क्योंकि यह अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन एक सकारात्मक संदेश दे रहा है। उन्होंने कहा कि सैनिक एवं आतंकी के बीच युवापन व जोश आदि जैसी कई तरह से समानता होने के बावजूद उनके संस्कारों में अंतर होने के कारण ही एक राष्ट्र की रक्षा करता है तो दूसरा राष्ट्र विरोधी हो जाता है। इस अवसर पर कुलपति ने प्रतीक स्वरूप दूर से आए 5 प्रतिभागियों को प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया। मुख्य वक्ता के रूप में संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो देवनारायण झा ने कहा कि समस्त पापों का नाश करने में सक्षम मिथिला की चिंतन अत्यंत उदात्त है, जिसमें सबके कल्याण की बात नहीं है। यहां के लोग आत्मविद्या विशारद होते हैं। यहां के दार्शनिक उदयनाचार्य ने मिथिला में बौद्धों को परास्त किया था।

आत्मतत्त्व का बोध कराना ही दर्शन का मूल उद्देश्य है। आस्तिक दर्शनों के साथ ही नास्तिक दर्शनों के विकास में भी मिथिला की भूमिका रही है। उन्होंने कहा कि कश्मीर में शैव दर्शन प्रमुख है, जहां कैय्यट, लोल्लट, कुन्तक, शंकुक, कल्हण व अभिनवगुप्त आदि विद्वान हुए हैं। प्रो झा ने कहा कि ज्ञान सामान्य जानकारी अथवा सैद्धांतिक होता है, जबकि विज्ञान प्रत्यक्ष अनुभूति अथवा व्यावहारिक होता है। उन्होंने शोधार्थियों एवं विद्यार्थियों से कहा कि वे अपनी पढ़ाई एवं शोध कार्य का सतत मूल्यांकन करें, क्योंकि भविष्य उन्हीं के कंधों पर है। संकटकाल में भी यदि भाषा, विद्या और संस्कृति बचेंगी तो राष्ट्र का पुनर्निर्माण संभव है। सारस्वत अतिथि के रूप में त्रिभुवन विश्वविद्यालय, नेपाल के पूर्व प्राध्यापक प्रो गोविंद चौधरी ने कहा कि मिथिला न्याय, मीमांसा आदि की भूमि है, जहां राजर्षि जनक, महर्षि याज्ञवल्क्य, मंडन मिश्र व वाचस्पति जैसे दार्शनिक विद्वान उत्पन्न हुए।

विशिष्ट अतिथि के रूप में रांची विश्वविद्यालय के पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो जंग बहादुर पांडे ने कहा कि मिथिला में न केवल संस्कृत, बल्कि अन्य भाषाएं भी फलीभूत हुई हैं। संस्कृत हासिए की नहीं, बल्कि केन्द्र की मुख्य भाषा है। केंद्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, तिरुपति के पूर्व कुलपति प्रो राधाकांत ठाकुर ने कहा कि ज्ञान व विज्ञान के क्षेत्र में मिथिला और कश्मीर में से कोई भी कम नहीं है। उन्होंने समारोह में डा आशा कुमारी लिखित 'सीता' पुस्तक की समीक्षा करते हुए कहा कि यह वाल्मीकि एवं भवभूति की रचनाओं पर आधारित हिन्दी में लिखित पुस्तक है जो भारतीय संस्कृति और संस्कार पर आधारित है। आगत अतिथियों का स्वागत एवं समारोह की अध्यक्षता करते हुए विभागाध्यक्ष प्रो जीवानंद झा ने संस्कृत गान के माध्यम से स्वागत करते हुए बताया कि सेमिनार में 22 राज्यों के करीब 500 से अधिक प्रतिभागी शामिल हुए, जिनमें 19 मुस्लिम भी शामिल हैं। वहीं अमेरिका, थाईलैंड, श्रीलंका एवं नेपाल के 5 विदेशी विद्वानों का व्याख्यान भी तकनीकी सत्रों में हुआ। आज नीतीश्वर महाविद्यालय की संस्कृत प्राध्यापिका प्रो विभा शर्मा तथा पूर्व स्नातकोत्तर संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो रामनाथ सिंह को पाग, चादर, किट व मोमेंटो से सम्मान प्रदान किया गया। वहीं विभागीय कर्मी उदय कुमार उदेश तथा योगेंद्र पासवान को कर्मवीर सम्मान से सम्मानित किया गया।

वहीं तकनीकी सत्र में मारवाड़ी महाविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष डा विकास कुमार सिंह के संचालन में अनेक प्रतिभागियों ने अपने शोध पत्र प्रस्तुत किए, जबकि श्रीलंका के प्रो लेनेगल सिरिनिवास महाथेरो ने मिथिला शब्द की उत्पत्ति तथा वैदिक काल एवं दार्शनिक परिप्रेक्ष में मिथिला एवं कश्मीर की विस्तार से चर्चा की। अमेरिका से प्रो बलराम सिंह ने नेति- नेति के ज्ञान की धरती मिथिला के दर्शन को व्यावहारिक बताते हुए मिथिला व कश्मीर का ज्ञान एवं विज्ञान के क्षेत्र में योगदान पर प्रकाश डाला। श्रीलंका के डा कंदेगम दीपवंसालंकार ने पालि त्रिपिटकों के संदर्भ के आधार पर मिथिला की परंपरा की चर्चा करते हुए सीता चरित्र पर विशेष प्रकाश डाला। थाईलैंड के डा प्राप्लाद सोरावित आकिपन्यो ने विज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में कश्मीर के योगदान की विस्तार से चर्चा की। वहीं श्रीलंका के मरथुवेला विजिथसिरि हिमि ने वाचस्पति मिश्र की भामती टीका पर विशेष प्रकाश डालते हुए उनके वेदांत दर्शन की विस्तार से चर्चा की तथा मंडन- भारती के बीच शंकराचार्य के शास्त्रार्थ पर भी प्रकाश डाला। कार्यक्रम का प्रारंभ शोध छात्र रंजिश वर्धा के वैदिक मंगलाचरण एवं अतिथियों द्वारा दीप प्रज्ज्वलन से हुआ, जबकि समापन सामूहिक राष्ट्रगान से हुआ।

आगत अतिथियों का स्वागत पाग, चादर, किट एवं मोमेंटो से किया गया। एचपीएस कॉलेज, मधेपुर के संस्कृत विभागाध्यक्ष प्रो संकल्पनाथ झा के कुशल संचालन में आयोजित समापन समारोह में धन्यवाद ज्ञापन स्नातकोत्तर संस्कृत विभाग के शिक्षक डा आर एन चौरसिया ने किया।