पढ़िए ‘मिथिला जन जन की आवाज’ के प्रधान संपादक आशिष कुमार की यह गूंजती हुई विशेष रिपोर्ट: दरभंगा ग्रामीण की मिट्टी में फिर सुलग उठी राजनीति की ज्वाला! सातवीं बार लालटेन जलाने को उतरे ललित, सामने हैं ईश्वर मंडल की नई आस्था; जनभावनाओं, जातीय समीकरणों और सियासी बयार के इस महासंग्राम में क्या टूटेगा दशकों पुराना ‘ललित युग’, या मिथिला की यह धरती फिर लिखेगी लालटेन की अमर गाथा?

यह केवल चुनाव नहीं, यह एक परंपरा की परीक्षा है। यह सीट केवल विधानसभा नहीं, बल्कि “लालटेन का आख़िरी किला” कही जाती है। दरभंगा ग्रामीण जहाँ सियासत खेतों की मेड़ों पर नहीं, विश्वास की नसों में दौड़ती है। जहाँ मतदाता वोट नहीं डालते, वफादारी निभाते हैं। यह वही इलाका है जहाँ वर्षों से लालटेन की रोशनी लोगों के घरों में अंधेरे के खिलाफ़ उम्मीद बनकर जलती रही। जहाँ हर सरकार आई और गई, लेकिन ललित कुमार यादव का नाम एक परिचय से ज़्यादा, एक परंपरा बन गया। ललित जिनकी राजनीति की जड़ें जनमानस के दिलों में हैं। ललित जिनकी जीत को कई बार "लहर" नहीं, बल्कि “लगाव” कहा गया। और अब वही ललित सातवीं बार लालटेन जलाने को तैयार हैं. पढ़े पूरी रिपोर्ट......

पढ़िए ‘मिथिला जन जन की आवाज’ के प्रधान संपादक आशिष कुमार की यह गूंजती हुई विशेष रिपोर्ट: दरभंगा ग्रामीण की मिट्टी में फिर सुलग उठी राजनीति की ज्वाला! सातवीं बार लालटेन जलाने को उतरे ललित, सामने हैं ईश्वर मंडल की नई आस्था; जनभावनाओं, जातीय समीकरणों और सियासी बयार के इस महासंग्राम में क्या टूटेगा दशकों पुराना ‘ललित युग’, या मिथिला की यह धरती फिर लिखेगी लालटेन की अमर गाथा?
पढ़िए ‘मिथिला जन जन की आवाज’ के प्रधान संपादक आशिष कुमार की यह गूंजती हुई विशेष रिपोर्ट: दरभंगा ग्रामीण की मिट्टी में फिर सुलग उठी राजनीति की ज्वाला! सातवीं बार लालटेन जलाने को उतरे ललित, सामने हैं ईश्वर मंडल की नई आस्था; जनभावनाओं, जातीय समीकरणों और सियासी बयार के इस महासंग्राम में क्या टूटेगा दशकों पुराना ‘ललित युग’, या मिथिला की यह धरती फिर लिखेगी लालटेन की अमर गाथा?

दरभंगा। यह केवल चुनाव नहीं, यह एक परंपरा की परीक्षा है। यह सीट केवल विधानसभा नहीं, बल्कि “लालटेन का आख़िरी किला” कही जाती है। दरभंगा ग्रामीण जहाँ सियासत खेतों की मेड़ों पर नहीं, विश्वास की नसों में दौड़ती है। जहाँ मतदाता वोट नहीं डालते, वफादारी निभाते हैं। यह वही इलाका है जहाँ वर्षों से लालटेन की रोशनी लोगों के घरों में अंधेरे के खिलाफ़ उम्मीद बनकर जलती रही। जहाँ हर सरकार आई और गई, लेकिन ललित कुमार यादव का नाम एक परिचय से ज़्यादा, एक परंपरा बन गया। ललित जिनकी राजनीति की जड़ें जनमानस के दिलों में हैं। ललित जिनकी जीत को कई बार "लहर" नहीं, बल्कि “लगाव” कहा गया। और अब वही ललित सातवीं बार लालटेन जलाने को तैयार हैं।

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लालटेन का किला जिसे तोड़ने निकली ईश्वर की सेना: हर किला एक दिन चुनौती झेलता है, और इस बार यह चुनौती आ रही है जदयू जिलाध्यक्ष ईश्वर मंडल की ओर से। एनडीए ने इस बार बड़ा दांव खेला है कहा जा रहा है कि “ईश्वर” के नाम में ही आस्था है, और जब जनता ‘ईश्वर’ को चुनेगी तो लालटेन अपने आप बुझ जाएगी।” लेकिन जनता चुप है। इस चुप्पी के अंदर ललित के प्रति पुराना भरोसा भी है, और बदलाव की हल्की लहर भी।2020 में जब फराज फातमी जैसे तेज़तर्रार उम्मीदवार मैदान में उतरे थे, तब मिथिला की धरती पर लगा था कि लालटेन इस बार बुझ जाएगी। पर नहीं ललित ने मात्र 2,141 मतों से जीत कर साबित कर दिया कि दरभंगा ग्रामीण में लालटेन जलती नहीं, “जलती रहती है”।

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 मुद्दे वही, चेहरे बदल गए लेकिन दर्द नहीं: किसान अब भी इंतज़ार में हैं उस दिन के, जब बंद पड़ी चीनी मिल फिर से गन्ने की खुशबू से महकेगी। बाढ़ में डूबे रास्ते अब भी “सरकारी मदद” का इंतज़ार करते हैं। पीएचसी अब भी डॉक्टरों की अनुपस्थिति में सन्नाटा ओढ़े है। लोग कहते हैं "नेता आते हैं वादों की किताब लेकर, पर जाते हैं और खाली पन्ने छोड़ जाते हैं।" पर फिर भी, जब “ललित” नाम आता है तो उस किताब में एक अध्याय जुड़ जाता है विकास का नहीं, लेकिन “संबंध” का।

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ललित का जादू घर-घर की कहानी: ललित कुमार यादव की राजनीति दरभंगा की मिट्टी से नहीं, मिथिला की आत्मा से जुड़ी है। उन्होंने सड़क से लेकर संसद तक वही भाषा बोली जो गांव का बूढ़ा किसान और शहर का युवा बेरोज़गार दोनों समझ सके। उनकी शैली में कोई राजनीतिक अहंकार नहीं, बल्कि जनता का अपनापन है। किसी ने ठीक कहा "दरभंगा ग्रामीण में लोग उम्मीदवार नहीं चुनते, वो अपने रिश्तेदार को जीताते हैं।" और वह रिश्तेदार अब भी वही है ललित।

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लेकिन इस बार मुकाबला अलग है… यह चुनाव केवल राजद बनाम जदयू नहीं है, यह चुनाव भावना बनाम बदलाव का है। ललित जहाँ पुरानी निष्ठा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वहीं ईश्वर मंडल नई सोच और जातीय संतुलन का चेहरा हैं। एनडीए इस बार हिंदू समीकरण पर भरोसा कर रहा है, जबकि राजद का भरोसा अपने घर-घर के रिश्तों और लालटेन के प्रतीक पर है। जनता चुप है लेकिन यह चुप्पी किसी तूफ़ान से पहले की शांति भी हो सकती है।

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इतिहास गवाह है… 1977 में जगदीश चौधरी ने जनता पार्टी से इस क्षेत्र की पहचान बनाई। फिर 1990 में जनता दल, और 2000 के बाद से लालटेन का युग शुरू हुआ।पीतांबर पासवान और फिर ललित कुमार यादव दो नाम जिन्होंने इस सीट को मिथिला की सियासत में अमर कर दिया। और आज तक दरभंगा ग्रामीण वही जगह है जहाँ लालटेन की लौ बुझाने की हर कोशिश राजनीति के इतिहास में “असफल प्रयोग” बनकर दर्ज हो गई।

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जनता की खामोशी सबसे बड़ा इशारा: दरभंगा ग्रामीण के लोग चुप हैं, लेकिन उनकी चुप्पी में सियासत का शोर छिपा है। बाजार में जब बातचीत होती है तो कोई खुलकर कुछ नहीं कहता बस इतना बोलता है, "देखिए, इस बार का चुनाव कुछ अलग है।" ललित की गली में अब भी लोग उन्हें “हमरा आदमी” कहते हैं, लेकिन ईश्वर मंडल के समर्थक गांव-गांव में कह रहे हैं "अबकी बार बदलाव की बयार है।" सवाल यही है क्या यह बयार लालटेन बुझा पाएगी, या लालटेन की लौ एक बार फिर मिथिला की रात को रोशन करेगी?

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दरभंगा ग्रामीण का चुनाव कोई साधारण चुनाव नहीं यह परंपरा बनाम परिवर्तन का युध्द है। ललित कुमार यादव का लालटेन केवल पार्टी का प्रतीक नहीं, यह उस जनता की भावनाओं की ज्योति है जिसने गरीबी, बाढ़ और राजनीतिक विसंगतियों के बीच हमेशा उम्मीद की लौ जलाए रखी। अब सवाल सिर्फ़ इतना है क्या इस बार ईश्वर मंडल की रणनीति उस लौ को बुझा पाएगी? या फिर सातवीं बार दरभंगा ग्रामीण की धरती पर लालटेन की लौ यह कह उठेगी “हम अब भी जल रहे हैं, और जलते रहेंगे!”