"जो चला गया, वो केवल शरीर था… उसकी आत्मा आज भी पत्रकारिता की रगों में बह रही है" स्व. देवेंद्र कुमार ठाकुर जी की प्रथम पुण्यतिथि पर एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि

कुछ व्यक्ति इस संसार में ऐसे आते हैं, जिनका होना मात्र कोई सांस लेने की प्रक्रिया नहीं होती—बल्कि वह एक विचार होते हैं, एक मिशन होते हैं, एक जनचेतना होते हैं। देवेंद्र कुमार ठाकुर जी ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे, जो न केवल पत्रकारिता के माध्यम से समाज को दिशा देते थे, बल्कि अपनी सरलता, विनम्रता और सच्चाई के प्रतीक बन चुके थे. पढ़े पुरी खबर........

"जो चला गया, वो केवल शरीर था… उसकी आत्मा आज भी पत्रकारिता की रगों में बह रही है" स्व. देवेंद्र कुमार ठाकुर जी की प्रथम पुण्यतिथि पर एक भावपूर्ण श्रद्धांजलि
जो चला गया, वो केवल शरीर था… उसकी आत्मा आज भी पत्रकारिता की रगों में बह रही है

बिहार। दरभंगा:- कुछ व्यक्ति इस संसार में ऐसे आते हैं, जिनका होना मात्र कोई सांस लेने की प्रक्रिया नहीं होती—बल्कि वह एक विचार होते हैं, एक मिशन होते हैं, एक जनचेतना होते हैं। देवेंद्र कुमार ठाकुर जी ऐसे ही व्यक्तित्व के धनी थे, जो न केवल पत्रकारिता के माध्यम से समाज को दिशा देते थे, बल्कि अपनी सरलता, विनम्रता और सच्चाई के प्रतीक बन चुके थे।

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कल जब उनकी प्रथम पुण्यतिथि के अवसर पर प्रेस क्लब, दरभंगा में श्रद्धांजलि सभा आयोजित की जा रही है, तब यह केवल एक स्मृति सभा नहीं, बल्कि एक युगबोध का स्मरण है—एक ऐसे युगपुरुष की याद, जिसने पत्रकारिता को अपना धर्म बनाया और सच्चाई को अपना परम उद्देश्य।

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कहते हैं कि पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, पर देवेंद्र जी ने इसे केवल एक "पद" या "कर्तव्य" की सीमा में नहीं बाँधा—उन्होंने इसे ईश्वर की सेवा मानकर जिया। वो आवाज़ थे उन लोगों की, जिनकी आवाज़ कहीं दब जाती थी। वो आंख थे उस समाज की, जो अक्सर अन्याय को देखकर भी आंखें मूंद लेता है।

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उनकी कलम में स्याही नहीं, आग होती थी—पर वह आग कभी क्रोध की नहीं होती थी, वह होती थी जागरूकता की लौ। उनका लेखन तलवार नहीं था, जो चुभे… बल्कि दीपक था, जो अंधेरे को चीरकर रोशनी दे।

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आज जब हम उन्हें याद करते हैं, तो स्मृतियों का समंदर उमड़ पड़ता है। उनकी हँसी, उनकी सादगी, उनका सहज संवाद, प्रेस क्लब के किसी कोने में बैठकर चाय की चुस्की लेते हुए गंभीर विषयों पर भी हल्के अंदाज़ में किया गया संवाद—ये सब दृश्य आँखों के सामने चलचित्र की तरह दौड़ते हैं। उनकी कमी केवल उनके परिवार को नहीं खल रही—बल्कि पत्रकारिता जगत ने एक स्तंभ खो दिया है। उनके सहकर्मियों ने एक मित्र, एक संरक्षक खोया है। और समाज ने… एक सजग प्रहरी। कल हम पुष्प अर्पित करेंगे, पर क्या यह पर्याप्त होगा उस आत्मा के लिए, जिसने अपने जीवन का हर क्षण समाज के जागरण को समर्पित कर दिया?

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नहीं। सच्ची श्रद्धांजलि तब होगी, जब हम उनकी राह पर चलेंगे। जब पत्रकारिता में साहस और संवेदना दोनों को जिएंगे। जब हम अपने लेखन में सिर्फ 'खबर' नहीं, बल्कि 'सच' को प्राथमिकता देंगे। देवेंद्र जी अब हमारे बीच भौतिक रूप से नहीं हैं, पर हर सच्चे पत्रकार की लेखनी में उनका स्पर्श है, हर बेख़ौफ़ सवाल में उनकी आत्मा की गूंज है, और हर सच की जीत में उनका आशीर्वाद छुपा है।

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हम उन्हें खोकर भी पा रहे हैं—हर उस विचार में जो उनके जैसे लोगों से जन्म लेता है। देवेंद्र जी अमर हैं—अपनी सोच, अपने कर्म और अपने शब्दों में। आज हम उन्हें नमन करते हैं—न केवल फूलों से, बल्कि उस वादे से कि हम उनके अधूरे कार्य को अपने जीवन की प्रेरणा बनाएंगे। शत् शत् नमन, वंदन, प्रणाम… ओम शांति।