राजा सलहेस की पूजा नहीं, समाज की आत्मा का उत्सव था सिनुआर गोपाल का यह आयोजन सावन की अंधेरी रात में जब दीपक बने श्रद्धालु, और कुलदेवता के चरणों में उतर आई पीढ़ियों की परंपरा, तो गूंज उठा वह राग जो केवल आस्था की थाह जानता है…..

दरभंगा की ज़मीन केवल धान की बालियों से नहीं महकती, वह सदा से आस्था की आँच, लोकगाथाओं की जीवित विरासत और ग्राम्य चेतना की माटी रही है। बहादुरपुर प्रखंड अंतर्गत हरिपट्टी पंचायत के छोटे से गाँव सिनुआर गोपाल में बीते शुक्रवार को कुछ ऐसा ही दृश्य घटित हुआ, जहाँ राजा सलहेस की पूजा केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं थी, वह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण थी, जिसमें एक समूचे समाज ने अपने अतीत को प्रणाम किया और भविष्य के लिए आशीष माँगा. पढ़े पुरी खबर......

राजा सलहेस की पूजा नहीं, समाज की आत्मा का उत्सव था सिनुआर गोपाल का यह आयोजन सावन की अंधेरी रात में जब दीपक बने श्रद्धालु, और कुलदेवता के चरणों में उतर आई पीढ़ियों की परंपरा, तो गूंज उठा वह राग जो केवल आस्था की थाह जानता है…..
राजा सलहेस की पूजा नहीं, समाज की आत्मा का उत्सव था सिनुआर गोपाल का यह आयोजन सावन की अंधेरी रात में जब दीपक बने श्रद्धालु, और कुलदेवता के चरणों में उतर आई पीढ़ियों की परंपरा, तो गूंज उठा वह राग जो केवल आस्था की थाह जानता है…..

दरभंगा की ज़मीन केवल धान की बालियों से नहीं महकती, वह सदा से आस्था की आँच, लोकगाथाओं की जीवित विरासत और ग्राम्य चेतना की माटी रही है। बहादुरपुर प्रखंड अंतर्गत हरिपट्टी पंचायत के छोटे से गाँव सिनुआर गोपाल में बीते शुक्रवार को कुछ ऐसा ही दृश्य घटित हुआ, जहाँ राजा सलहेस की पूजा केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं थी, वह एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण थी, जिसमें एक समूचे समाज ने अपने अतीत को प्रणाम किया और भविष्य के लिए आशीष माँगा।

जब कुलदेवता नहीं, कुल चेतना की आराधना हुई... राजा सलहेस एक नाम नहीं, लोकशक्ति के प्रतीक, न्याय के जीवंत मूर्त और पासवान समाज के आत्मगौरव के स्थायी स्तम्भ। सावन की इस वेला में, जब धूप पिघल रही थी और हवा में हरियाली की गंध तैर रही थी, गाँव के कोने-कोने से लोग अपने पारंपरिक वस्त्रों में, अपने परिवारजनों के साथ पूजा स्थल की ओर बढ़े हाथों में प्रसाद, आँखों में श्रद्धा और हृदय में पीढ़ियों से उपजे विश्वास के दीप जल रहे थे। बहेड़ा के भगत अरुण पासवान, सिंघिया से आए मानर मृदंग वादक, और अनेक सिद्ध मानर भगतों की उपस्थिति ने इस आयोजन को मात्र एक कार्यक्रम नहीं, एक सांस्कृतिक अनुष्ठान में बदल दिया।

जब मृदंग की थाप पर इतिहास ने नृत्य किया... संध्या होते-होते जैसे ही मृदंग की थाप शुरू हुई, वैसे ही लोकगाथाओं की जीवंतता ने वायुमंडल को जगा दिया। देवताओं का स्मरण करते हुए जब भगतों ने अपनी परंपरागत मुद्राओं में खेल आरंभ किया, तो उपस्थित जनमानस केवल दर्शक नहीं, एक जीवंत परंपरा के साक्षी बन गए। पूरी रात गाँव की मिट्टी से लेकर मानव मन तक, सब कुछ एक ही राग में बँधा हुआ प्रतीत हो रहा था यह राग था श्रद्धा, स्मृति और सामाजिक समरसता का।

जब पीढ़ियाँ एक ही आसन पर बैठकर कुलदेवता को नमन करने लगीं... फकीर पासवान की वाणी में सहजता थी जब वे बोले, "राजा सलहेस हमारे कुलदेवता ही नहीं, समाज के पथप्रदर्शक हैं। उनकी पूजा हमें दिशा देती है।" संतोष पासवान की बातों में आत्मगौरव की झलक थी "एक वर्ष में एक बार अपने कुलदेवता को स्मरण करना, हमारी पीढ़ियों की परंपरा है।" लक्ष्मण कुमार पासवान ने भावभीनी विनम्रता से कहा, “हमारे पूर्वजों की यह परंपरा हमें जोड़ती है, हम सब एक धागे में बँधे हैं सलहेस ही वह सूत्र हैं।” किशोरी पासवान और दिलीप पासवान जैसे ग्रामीणों की आंखों में नमी थी, पर चेहरे पर गर्व था। उन्होंने इस अवसर को सामुदायिक एकता का संगम बताया, जो केवल पूजा नहीं, अपने स्वत्व की पहचान है।

जब राजनीति नहीं, लोकनीति जुड़ी… पूरे आयोजन की गरिमा तब और बढ़ गई जब हरिपट्टी पंचायत के मुखिया कैलाश बाबा, क्षेत्र के जनप्रतिनिधि और आसपास के दर्जनों गाँवों से आए जनमानस इस आयोजन में सम्मिलित हुए। किसी को भी यह भान नहीं था कि वह किसी “समारोह” में है, सबको यही लगा कि वह अपने कुल की आत्मा के समक्ष उपस्थित है।

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एक विचार... इस युग में जब रिश्ते टूट रहे हैं, तब यह पूजा जोड़ती है... आज जब समाज बाँटने की रेखाओं से झुलस रहा है, जब परिवार खण्डित हो रहे हैं, जब पीढ़ियाँ परंपरा से कटती जा रही हैं ऐसे में सिनुआर गोपाल का यह आयोजन समय की उस दरार को भरने वाला एक सांस्कृतिक मलहम है। यह पूजा किसी एक जाति की नहीं, एक विचार की पूजा है जहाँ आस्था, आत्मगौरव, लोकसंस्कार और सामाजिक समरसता एक ही चौकी पर दीप की तरह जलते हैं।