दरभंगा की धरती ने झुककर किया नमन कालाजार के वैद्य, डिमेंशिया के यज्ञकर्ता डॉ. मोहन मिश्रा के नाम पर उस पथ का नामकरण, जहाँ मानवता अब भी साँस लेती है
शहर के बीचों-बीच एक मौन हृदय धड़कता है। उसका नाम है बंगाली टोला। यहाँ की गलियों में इतिहास चुपचाप चलता है, दीवारें कुछ कहती नहीं मगर बहुत कुछ सहती हैं। और इसी मौन गली ने सोमवार को बोलना सीख लिया जब उसका नाम रखा गया “डॉ. मोहन मिश्रा पथ”। यह केवल एक नामकरण नहीं था। यह श्रद्धा का सार्वजनिक प्रदर्शन था, एक डॉक्टर की जीवित समाधि की प्रतिष्ठा थी जो जीवन भर दूसरों की साँसों की रक्षा करता रहा और अब स्वयं एक गली की शिराओं में धड़कता रहेगा. पढ़े पुरी खबर.....

दरभंगा:- शहर के बीचों-बीच एक मौन हृदय धड़कता है। उसका नाम है बंगाली टोला। यहाँ की गलियों में इतिहास चुपचाप चलता है, दीवारें कुछ कहती नहीं मगर बहुत कुछ सहती हैं। और इसी मौन गली ने सोमवार को बोलना सीख लिया जब उसका नाम रखा गया “डॉ. मोहन मिश्रा पथ”। यह केवल एक नामकरण नहीं था। यह श्रद्धा का सार्वजनिक प्रदर्शन था, एक डॉक्टर की जीवित समाधि की प्रतिष्ठा थी जो जीवन भर दूसरों की साँसों की रक्षा करता रहा और अब स्वयं एक गली की शिराओं में धड़कता रहेगा।
फूलों से ज्यादा भारी था मौन: उद्घाटन समारोह में फूलों की माला थी, गुलदस्ते थे, मंच पर खड़े चेहरे थे मंत्री, सांसद, अफसर, और स्थानीय जनप्रतिनिधि। लेकिन इन सबसे बड़ा एक अदृश्य अतिथि भी मौजूद था वो आत्मा, जो गंगा-जमनी तहज़ीब से बुने दरभंगा की सड़कों पर चुपचाप इलाज करती थी। पद्मश्री डॉ. मोहन मिश्रा की तस्वीर पर माल्यार्पण नहीं था, वो दरअसल उस डॉक्टर को जीवन से मृत्यु की गोद में विदा कहने का दूसरा नाम था।
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मंत्री मदन सहनी ने कहा: "उन्होंने कालाजार से लड़ने के लिए जो औषधियाँ खोजीं, वो महज़ दवा नहीं थीं, गरीब की अंतिम उम्मीद थीं।"
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एक डॉक्टर जिसने मरीज नहीं, मानवता का इलाज किया: डॉ. मोहन मिश्रा की सादगी, उनकी आँखों की शांति, और उनकी दवाइयों का असर ये सब मिलकर उन्हें 'चिकित्सा का कबीर' बना देते हैं। वे मधुबनी के कोयलख गांव से आए थे, मगर उनका ठिकाना दरभंगा का दिल हो गया। 1995 में DMCH से एचओडी के पद से सेवानिवृत्त हुए, पर सेवानिवृत्ति उनके लिए आराम का नहीं, पुनः प्रारंभ का दूसरा नाम था। बंगाली टोला स्थित उनके घर का दरवाज़ा कभी बंद नहीं हुआ। वहाँ कोई घंटी नहीं बजती थी वहाँ केवल कराह की आहट थी, और उसकी दवा थी डॉ. मोहन मिश्रा।
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ब्राह्मी से उभरी उम्मीद की बेल: आज जब मेडिकल साइंस दवाओं के पेटेंट में उलझा है, डॉ. मिश्रा ने ब्राह्मी जैसे देशज पौधे से डिमेंशिया जैसी लाइलाज बीमारी का इलाज खोजा। यह कोई सरकारी प्रोजेक्ट नहीं था, यह उनकी आत्मा की ललक थी जो अपने अंतिम समय तक अनुसंधान करती रही। उनका शोध न केवल ‘फ्यूचर हेल्थकेयर जर्नल’ (लंदन) में प्रकाशित हुआ, बल्कि यह भी प्रमाणित हुआ कि साधारण दिखने वाली चीज़ें असाधारण हो सकती हैं अगर नीयत वैज्ञानिक और हृदय मानवीय हो।
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सड़क के नीचे बिछी स्मृतियाँ: नगर विकास मंत्री जीवेश मिश्रा ने जब यह कहा कि “ढाई करोड़ की लागत से यह सड़क अब नाला युक्त बनेगी,” तब यह केवल एक परियोजना की घोषणा नहीं थी यह घोषणा थी कि दरभंगा अब उन पथों को संवारना चाहता है, जिन पर अच्छाई ने पाँव रखे थे। “हमने बहुत गलियों के नाम देखे हैं वीरों के, राजाओं के, देवताओं के। पर अब पहली बार एक ऐसे डॉक्टर के नाम पर रास्ता बना, जिसने पर्ची पर जान लिखी थी।”
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जब उद्घाटन केवल प्रशासनिक नहीं, आत्मिक होता है: राजनीति के मंच पर जब सच्चे सम्मान की भाषा बोलने लगे मंत्री, जब तस्वीरों के पीछे सिर्फ दिखावा नहीं, श्रद्धा हो तब समझिए कोई बड़ी आत्मा स्मृतियों से लौटकर आसपास मंडरा रही है। डॉ. मोहन मिश्रा आज वहीं थे उसी उद्घाटन में हवा में, दीवारों पर, और लोगों की आँखों की कोरों में।
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एक सड़क, जो चिकित्सा और करुणा के मिलन बिंदु पर है: अब जब आप बंगाली टोला जाएं, और उस गली में पाँव रखें, तो ध्यान रखें वहाँ अब सिर्फ मिट्टी नहीं है। वहाँ डॉ. मिश्रा की सेवा है, उनकी शोध है, उनकी दवाओं की महक है, और उन अनगिनत मरीजों की दुआएं हैं जिन्होंने इलाज नहीं, उम्मीद पाई थी। "जब कोई डॉक्टर अपनी प्रैक्टिस में धर्म खोज लेता है, तब वह गली एक तीर्थ बन जाती है।" “डॉ. मोहन मिश्रा पथ” अब केवल बंगाली टोला की पहचान नहीं, दरभंगा की आत्मा का नया नाम है।