"जब मई की दुपहरी में पिघलने लगीं मासूम साँसें, और जिलाधिकारी की चेतावनी बनी दरभंगा के स्कूलों के लिए जीवनरक्षक फरमान: एक प्रशासनिक आदेश नहीं, बल्कि तपती दोपहर की चीख को सुन लेने वाली संवेदनशील व्यवस्था की दस्तक"
दरभंगा की धरती पर मई की दोपहर अब सिर्फ़ मौसम का नहीं, संवेदनाओं का भी इम्तिहान बन चुकी है। गर्मी कोई नई बात नहीं, पर जो तपिश इस बार महसूस हो रही है, वह शरीर से अधिक आत्मा को जला रही है। गलियों में झुलसते चेहरे, कक्षाओं में चुपचाप सूखती हँसी, और स्कूल बैग में बंद होती मासूमियत यह सिर्फ़ जलवायु संकट नहीं, यह चेतावनी है, एक पूरे समाज के लिए, जो अब भी बच्चों को पाठशालाओं में भेजने को जिम्मेदारी मानता है, सुरक्षा नहीं. पढ़े पुरी खबर.......

दरभंगा की धरती पर मई की दोपहर अब सिर्फ़ मौसम का नहीं, संवेदनाओं का भी इम्तिहान बन चुकी है। गर्मी कोई नई बात नहीं, पर जो तपिश इस बार महसूस हो रही है, वह शरीर से अधिक आत्मा को जला रही है। गलियों में झुलसते चेहरे, कक्षाओं में चुपचाप सूखती हँसी, और स्कूल बैग में बंद होती मासूमियत यह सिर्फ़ जलवायु संकट नहीं, यह चेतावनी है, एक पूरे समाज के लिए, जो अब भी बच्चों को पाठशालाओं में भेजने को जिम्मेदारी मानता है, सुरक्षा नहीं।
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दरभंगा के जिलाधिकारी राजीव रौशन का आदेश अब एक "सरकारी पत्र" नहीं, बल्कि समय की पुकार है बच्चों की साँसों को तपती दोपहरों से बचाने की, और उस व्यवस्था को झकझोरने की जो आज भी समय-सारणी के नाम पर जीवन की आहुति मांगती है। कहानी सिर्फ़ स्कूलों की नहीं, भविष्य के निर्माण की है: 14 मई 2025 से 31 मई तक दरभंगा जिले के सभी सरकारी एवं गैर-सरकारी विद्यालयों, प्री-स्कूल और आंगनबाड़ी केन्द्रों में पूर्वाह्न 11 बजे के बाद कक्षाएं नहीं चलेंगी।
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यह आदेश किसी औपचारिकता से उपजा निर्णय नहीं, यह बच्चों की धड़कनों में घुलती गर्मी की आग को बुझाने का प्रयास है। आप सोचेंगे, क्या इतना काफी है? काफी तो तब होता, जब स्कूलों में कूलर होते, पानी के ठंडे घड़े होते, प्राथमिक उपचार की किटें होतीं, और सबसे जरूरी एक संवेदनशील दृष्टि होती, जो किताब से पहले बच्चे को देखती। कक्षा में बैठा आठ साल का आदित्य अब पसीने में नहीं, डर में भीगता है: "सर, रोज़ धूप में स्कूल जाते समय लगता है जैसे साँस नहीं आएगी। पानी भी स्कूल में खत्म हो जाता है।" यह शब्द हैं आठ साल के आदित्य के, जो लहेरियासराय के एक निजी विद्यालय में पढ़ता है।
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अब सोचिए, जब एक बच्चा सुबह 7 बजे स्कूल निकलता है, और दोपहर 2 बजे तक वहाँ रहता है, तो क्या उसके जीवन पर भीषण गर्मी कोई असर नहीं डालती? यह सिर्फ़ थकान नहीं, यह जीवन से खिलवाड़ है।जिलाधिकारी का आदेश उन सबके लिए एक कठोर संदेश है स्कूल सिर्फ़ पढ़ाने की जगह नहीं, जीने की जगह भी होनी चाहिए। प्रशासन की चेतावनी में छिपा एक अनकहा प्रश्न: राजीव रौशन ने भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता-2023 की धारा-163 के तहत यह निर्णय लिया है। इस धारा का प्रयोग तब किया जाता है, जब कोई खतरा जनजीवन पर मंडराने लगे। तो क्या हम मान लें कि आज हमारे बच्चों का विद्यालय जाना एक ‘खतरा’ बन चुका है? इस निर्णय में स्पष्टता है, पर इस निर्णय के पीछे जो पीड़ा है, वह कहीं अधिक गहरी है।
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प्रशासन का यह आदेश शिक्षकों, अभिभावकों और समाज तीनों से एक प्रश्न पूछता है: क्या हम केवल अंक देने वाली शिक्षा चाहते हैं, या जीवन देने वाली व्यवस्था? मौन लेकिन मुखर हैं ये शब्द "अब भी नहीं चेते तो पछताना पड़ेगा" ज़िला शिक्षा पदाधिकारी, प्रखंड विकास पदाधिकारी और संबंधित पदाधिकारियों को इस आदेश के अनुपालन का निर्देश दिया गया है। पर सवाल ये है कि क्या इस आदेश को एक “सरकारी फ़ाइल” से बाहर निकालकर “संवेदनशील कार्य” में बदला जाएगा? क्यों नहीं हमारे विद्यालयों में गर्मी के पूर्वानुमान पर आधारित ‘शैक्षणिक मौसम नीति’ बनती?
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क्यों नहीं हर साल सिर्फ़ समय घटाने के बदले समग्र सुरक्षा नीति बनाई जाती? क्यों नहीं हर स्कूल में पंखे, छायादार स्थल और प्राथमिक चिकित्सा अनिवार्य कर दिए जाते? ये सिर्फ़ आदेश नहीं, एक अलार्म है जो बजेगा नहीं, तो बहुत कुछ बुझ जाएगा: आज जिलाधिकारी की चेतावनी आई है, कल डॉक्टरों की रिपोर्ट आएगी, और फिर हम लिखेंगे एक और खबर “लू लगने से बच्चे की मौत”। क्या यही चाहते हैं हम?
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आइए, इस चेतावनी को सिर्फ़ शब्दों में नहीं, कर्म में बदलें। आइए, शिक्षा को सिर्फ़ ज्ञान नहीं, जीवन से जोड़ें। और सबसे पहले, अपने स्कूलों को बच्चों के लायक बनाएं न कि मौसम के रहमोकरम पर छोड़ दें। अंत में एक पंक्ति, जो हर शिक्षक, अभिभावक और प्रशासक को याद रखनी चाहिए: "शिक्षा तब तक जीवनदायिनी नहीं बन सकती, जब तक उसके रास्ते में बच्चों की जान सांसत में हो।"