जब दरभंगा की सड़कों पर बहनों के आँसू अंगार बने, लाठी के घाव क्रांति की चिंगारी बने, और नारियों ने ओढ़ी रक्तरंजित चुनरी तब सत्ता की खामोशी धुएं में घुल गई, नाजिया हसन के पुतले राख हुए, और मिथिला की आत्मा ने कहा: अब हर लाठी का जवाब संकल्प से होगा, हर चुप्पी का हिसाब मांगेंगी बेटियाँ!
कभी शांति और संस्कृति की नगरी रही दरभंगा, अब धीरे-धीरे आंदोलनों की आग में तप रही है। और इस बार, यह ज्वाला किसी पुरुष नेता की हुंकार से नहीं, बल्कि मिथिला की नारियों की आंखों से निकली थी वे आंखें जो कल तक आंसुओं में डूबी थीं, आज अंगारों में बदल चुकी थीं। शनिवार की वह शाम, जब लाठियों की गूंज ने भाजपा कार्यकर्ताओं की पीठ पर अपनी छाप छोड़ी, उसी पल मिथिला की आत्मा घायल हुई. पढ़े पुरी खबर........

दरभंगा, बिहार। कभी शांति और संस्कृति की नगरी रही दरभंगा, अब धीरे-धीरे आंदोलनों की आग में तप रही है। और इस बार, यह ज्वाला किसी पुरुष नेता की हुंकार से नहीं, बल्कि मिथिला की नारियों की आंखों से निकली थी वे आंखें जो कल तक आंसुओं में डूबी थीं, आज अंगारों में बदल चुकी थीं। शनिवार की वह शाम, जब लाठियों की गूंज ने भाजपा कार्यकर्ताओं की पीठ पर अपनी छाप छोड़ी, उसी पल मिथिला की आत्मा घायल हुई। और रविवार की दोपहर, उसी आत्मा ने रूप लिया एक जनक्रांति का धुएं की लहरों में घुलता हुआ प्रतिरोध, नारे और नारियों का गुस्सा, पुतलों की राख और प्रशासन की सिहरन।
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शनिवार की वो स्याह लाठी: जहां खून था, चीख थी, और चुप्पी थी: दरभंगा विश्वविद्यालय थाना क्षेत्र में शनिवार को भाजपा कार्यकर्ताओं पर हुए लाठीचार्ज ने केवल उनके शरीर को घायल नहीं किया, बल्कि राजनीतिक मर्यादाओं को भी छलनी कर दिया। पुरुष कार्यकर्ताओं के कपड़े खून से तरबतर हो गए, और महिला कार्यकर्ताओं की साड़ी के किनारे पर आंसुओं की धार बह चली। हर प्रहार के साथ एक सवाल उठता रहा "क्या यही लोकतंत्र है, जहाँ जनता की आवाज़ को लाठियों से दबाया जाता है?"
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डॉ. चंदन ठाकुर ने फेसबुक पर एक तीखी टिप्पणी की, जो अब मिथिला के हर जागरूक नागरिक की जुबान पर है: “जब जिलाध्यक्ष पीटे जा रहे हों और सांसद गाँव में झाल बजा रहे हों, तो समझिए मिथिला का भाग्य कितना दुर्भाग्यपूर्ण है।”
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रविवार: जब आक्रोश ने सड़कों को थर्राया: रविवार की शाम, जैसे दरभंगा की सड़कों ने क्रांति की करवट ली हो। आयकर चौराहा से एक लंबी, सुलगती हुई भीड़ चली पुरुष, महिलाएं, युवा, वृद्ध सबके कदमों में एक ही आवाज़ थी: "हम अब चुप नहीं बैठेंगे!"
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और फिर विश्वविद्यालय थाना के समीप, इतिहास ने एक और मोड़ लिया। बीच सड़क पर, महिलाओं ने नगर निगम के डिप्टी मेयर नाजिया हसन का पुतले जलाए SDPO अमित कुमार और SDM विकास कुमार के नाम की पहचान अब केवल एक प्रशासनिक पद नहीं, बल्कि प्रतिरोध की चिंगारी बन चुकी थी।
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धुएं में घुलते हुए नारों ने बताया कि यह विरोध सिर्फ लाठी का नहीं, बल्कि सत्ता के अहंकार का विरोध है। "दरभंगा पुलिस मुर्दाबाद!" "मिथिला की नारी पर लाठी चलाना बंद करो!"
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मां, बहनें और नेता नहीं देवी बनकर उठीं महिलाएं: विरोध की सबसे सशक्त आवाज़ बनीं भाजपा नेत्री मीना झा, जिनकी आंखों में इस बार आँसू नहीं थे वे ज्वालाएं थीं, जिनमें पीड़ा भी थी, प्रतिज्ञा भी। "मिथिला की नारी को अगर छेड़ा गया, तो वह मां काली का रूप धारण कर लेगी। यह चेतावनी है, यह आंदोलन नहीं रुकेगा जब तक दोषी अधिकारियों को निलंबित नहीं किया जाएगा।" उनकी बात कोई बयान नहीं, बल्कि उस धरती की पुकार थी जहाँ जानकी ने त्याग सीखा था और अब उसी धरती पर स्त्रियों को लाठी सिखाई जा रही है।
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पुरुष कार्यकर्ताओं की पीड़ा: यह साजिश है, यह इशारा है: एक युवा कार्यकर्ता पृथ्वीराज ने कांपते स्वर में कहा "ये केवल लाठीचार्ज नहीं था। यह योजनाबद्ध साजिश थी। हमें दबाने का प्रयास किया गया। लेकिन अब हम लड़ेंगे हर मंच पर, हर मोर्चे पर।" उनके पीछे खड़े बुजुर्ग कार्यकर्ता के हाथ में पट्टी बंधी थी, लेकिन उनके स्वर में क्रांति थी। उन्होंने कहा: "हम मिट्टी हैं मिथिला की। जितनी बार गिरेंगे, उतनी बार उगेंगे। लेकिन इस बार प्रशासन का चेहरा उजागर करना जरूरी है।"
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प्रशासन: भारी तैनाती, गहरी खामोशी: रविवार के इस ज्वलंत प्रदर्शन को लेकर प्रशासन भी सतर्क था। पुलिस बल भारी संख्या में तैनात था, लेकिन इस बार लाठी नहीं चली। शायद किसी ने समझ लिया था कि भीड़ के पास अब सिर्फ नारे नहीं, संकल्प भी है।
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एसडीएम और एसडीपीओ दोनों चुप हैं। कोई स्पष्टीकरण नहीं। कोई बयान नहीं। शायद इसलिए कि "चुप्पी ही सबसे बड़ा अपराध बन जाती है, जब सामने जनसैलाब हो।" राजनीति का मौन, विपक्ष की चुप्पी और जनता का सवाल: यह विरोध कोई पार्टी विरोध नहीं था, यह 'प्रशासन विरोध' था। लेकिन विपक्ष की भी चुप्पी सवालों के घेरे में है। क्या सत्ता की चुप्पी और विपक्ष की दूरी दोनों ने मिलकर लोकतंत्र की रीढ़ तो नहीं तोड़ी?
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मिथिला का सवाल: "क्या हमारी बेटियों की आवाज़ भी सियासी तराजू पर तौली जाएगी?" हर आंदोलन एक कहानी होता है। लेकिन यह कहानी सिर्फ राजनीति की नहीं, सामाजिक चेतना की भी है।जहाँ एक ओर लाठी का दर्द था, वहीं दूसरी ओर ‘संवेदना की हत्या’ भी। और सबसे बड़ा सवाल यह है क्या दोषी अधिकारियों पर कोई कार्रवाई होगी? या फिर लाठीचार्ज और पुतला दहन दोनों कुछ दिनों की सुर्खियाँ बनकर गुम हो जाएंगे?
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यह आंदोलन रुका नहीं है, केवल थमा है। यह धुआं छंटेगा, लेकिन अगर प्रशासन ने सच का सामना नहीं किया तो मिथिला की सड़कें फिर सुलगेंगी, नारियाँ फिर गरजेंगी, और इतिहास खुद लिखेगा "लाठी से जन्मा आंदोलन, और चुप्पी से बना विद्रोह..."