भरवाड़ा मंदिर के बाहर बाइक की ठोकर से उपजा विवाद, समझाने पहुँचे पुजारी प्रशांत भारती पर हुआ हमला; शांति का संदेश देने वाले धर्मसेवक को भीड़ ने खून से लथपथ किया, मंदिर की चौखट पर कराह उठी आस्था प्रशासन अब भी ‘आवेदन’ का कर रहा इंतज़ार!
भरवाड़ा... एक छोटा-सा कस्बा, जहां सुबह की शुरुआत मंदिर की घंटियों और शाम की विदाई आरती के स्वर से होती है। जहां पुजारी प्रशांत कुमार भारती उर्फ मुन्ना, सालों से लोगों के दुःख-सुख के साथ खड़े रहे, वही पुजारी जब खून से लथपथ होकर मंदिर की चौखट पर गिरा, तो न केवल एक इंसान जख्मी हुआ, बल्कि आस्था का एक स्तंभ भी डगमगा गया. पढ़े पुरी खबर......

दरभंगा: भरवाड़ा... एक छोटा-सा कस्बा, जहां सुबह की शुरुआत मंदिर की घंटियों और शाम की विदाई आरती के स्वर से होती है। जहां पुजारी प्रशांत कुमार भारती उर्फ मुन्ना, सालों से लोगों के दुःख-सुख के साथ खड़े रहे, वही पुजारी जब खून से लथपथ होकर मंदिर की चौखट पर गिरा, तो न केवल एक इंसान जख्मी हुआ, बल्कि आस्था का एक स्तंभ भी डगमगा गया।
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मंदिर के बाहर की मारपीट और पुजारी की पीड़ा: यह मामला बृहस्पतिवार की दोपहर का है, जब काजी मोहल्ला भरवाड़ा, पठान टोली और शंकरपुर से आए कुछ युवक अतरबेल-भरवाड़ा पथ पर बाइक की टक्कर को लेकर विवाद कर रहे थे। यह झगड़ा धीरे-धीरे मंदिर के सामने तक पहुंच गया। स्थिति बिगड़ती देख मंदिर परिसर से बाहर निकलकर पुजारी प्रशांत भारती ने बीच-बचाव का प्रयास किया। उन्होंने जीवन भर शांति और संयम का पाठ पढ़ाया है, लेकिन उस दिन वही पुजारी हिंसा के शिकार बन गए। हाथापाई कर रहे युवकों ने उन पर हमला बोल दिया। लात-घूंसों की बौछार, अपशब्दों की आग और उसके बीच पुजारी की कराह इस दृश्य ने गांव के सन्नाटे को भी रुला दिया।
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खून में सना आस्था का रक्षक: प्रशांत भारती, जिनकी हथेलियों से सिंदूर सजे देवी की मूर्ति को, अब उन्हीं हथेलियों से खून टपक रहा था। उनके सफेद कपड़े, जो पूजा की शुद्धता का प्रतीक थे, अब लाल हो चुके थे। उन्हें घायल अवस्था में सिंहवाड़ा सीएचसी ले जाया गया, जहां उनका इलाज चल रहा है। अस्पताल की बेंच पर पड़े उस पुजारी की आंखों में सिर्फ दर्द नहीं, बल्कि सवाल थे "क्यों? मैंने तो बस शांत करना चाहा था..."
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पुलिस की तैनाती और प्रशासन की निष्क्रियता पर सवाल: घटना की जानकारी मिलते ही सिंहवाड़ा थानाध्यक्ष रंजीत कुमार पुलिस बल के साथ पहुंचे। वहीं डीएसपी टू ज्योति कुमारी ने भी मौके पर पहुँचकर हालात का जायज़ा लिया। परंतु बड़ा प्रश्न यह है कि क्या यह उपस्थिति उस गहरे मानसिक आघात को भर सकती है, जो एक धार्मिक सेवक को झेलनी पड़ी?
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अब तक इस मामले में कोई आधिकारिक आवेदन नहीं दिया गया है। प्रशासन कह रहा है, "आवेदन मिलते ही कार्रवाई होगी।" लेकिन क्या यह केवल औपचारिकता भर है? क्या हम इतना असंवेदनशील हो गए हैं कि हमें किसी की आस्था की रक्षा के लिए 'आवेदन' की जरूरत पड़ती है?
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सवाल जो समाज से हैं:
क्या धर्मस्थल के सामने खून बहाना अब आम हो गया है?
क्या पुजारी की बात में अब कोई वजन नहीं बचा?
क्या हमारा युवा अब आवेश में इतना अंधा हो गया है कि वह शांति के पुजारियों को भी नहीं पहचानता?
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मौन खड़ा भरवाड़ा मंदिर: आज भरवाड़ा मंदिर के द्वार पर न आरती हो रही है, न घंटियां बज रही हैं। वहां केवल सन्नाटा है, जो हर श्रद्धालु से पूछ रहा है क्या अब ये जगह भी सुरक्षित नहीं रही? मंदिरों में अगर अब पुजारियों की रक्षा नहीं हो पा रही है, तो फिर शांति और अध्यात्म की बातें बेमानी हैं। हम उस मोड़ पर खड़े हैं जहां धर्म भी भीड़ के डर से कांपने लगा है। यह सिर्फ़ प्रशांत भारती पर हमला नहीं है, यह एक समाज पर हमला है।
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वह समाज जो चुप रह गया। वह समाज जो तमाशबीन बना रहा। और वह प्रशासन, जो आवेदन के इंतजार में संवेदना भूल बैठा है। इस रिपोर्ट को पढ़ते हुए यदि आपकी आत्मा कांप जाए, तो समझिए कि अभी भी कुछ बचा है... अन्यथा, अगले पुजारी की चीखों में शायद आपका नाम भी गूंजे।