दरभंगा टॉवर के गांधी मूर्ति के साए में कल से उठेगी मिथिला की आवाज़ पूर्व डीजी आर.के. मिश्रा का अनिश्चितकालीन धरना, प्रशासनिक चुप्पी पर फूटा आक्रोश; नगर थानाध्यक्ष अरविंद कुमार की निष्क्रियता पर उठे सवाल, जब न्याय की तलाश में खुद न्यायप्रिय को सड़कों पर उतरना पड़े
मिथिला की पावन भूमि ने सदैव एक ही संदेश दिया है सहनशीलता हमारी संस्कृति है, लेकिन अन्याय के आगे झुकना हमारी परंपरा नहीं। इसी परंपरा को फिर से जीवित करने की कोशिश में उतर चुके हैं जन सुराज पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व डीजी आर.के. मिश्रा, जिन्होंने प्रशासनिक चुप्पी के खिलाफ अब गांधी मूर्ति के साए में सत्याग्रह करने का ऐलान किया है. पढ़े पूरी खबर.......
दरभंगा। मिथिला की पावन भूमि ने सदैव एक ही संदेश दिया है सहनशीलता हमारी संस्कृति है, लेकिन अन्याय के आगे झुकना हमारी परंपरा नहीं। इसी परंपरा को फिर से जीवित करने की कोशिश में उतर चुके हैं जन सुराज पार्टी के वरिष्ठ नेता और पूर्व डीजी आर.के. मिश्रा, जिन्होंने प्रशासनिक चुप्पी के खिलाफ अब गांधी मूर्ति के साए में सत्याग्रह करने का ऐलान किया है।

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घटना की पृष्ठभूमि : जब सम्मान को ठेस पहुँची: 6 नवंबर को मतदान के दिन हसनचक में जो कुछ हुआ, उसने राजनीति की सच्चाई को एक बार फिर नंगा कर दिया। लोकतंत्र के सबसे पवित्र दिन, जब हर मतदाता अपने अधिकार का प्रयोग कर रहा था, तभी भाजपा समर्थित कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा आर.के. मिश्रा के साथ अभद्रता की गई। पूर्व डीजी ने, जो अपने जीवन का अधिकांश भाग कानून, अनुशासन और व्यवस्था के प्रति समर्पित कर चुके हैं, इस अपमान को न केवल व्यक्तिगत आघात बल्कि मिथिला की अस्मिता पर चोट बताया। नगर थाना में शिकायत दर्ज होने के बाद भी जब पुलिस प्रशासन ने कोई निर्णायक कार्रवाई नहीं की, तब मिश्रा के भीतर का “प्रशासक” मौन हो गया और “संवेदनशील नागरिक” जाग उठा।

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आचार संहिता के बीच संघर्ष का स्वर: वर्तमान में आचार संहिता लागू है। ऐसे में कोई भी आंदोलन, धरना या सार्वजनिक प्रदर्शन प्रशासनिक दृष्टि से संवेदनशील माना जाता है। कानून कहता है कि इस अवधि में कोई भी राजनीतिक दल या उम्मीदवार ऐसा कदम न उठाए, जिससे चुनाव प्रक्रिया प्रभावित हो। लेकिन आर.के. मिश्रा का तर्क कुछ और है जब अन्याय हो, तब कानून का अर्थ बदल जाता है। मौन रहना भी अपराध है। मैं न तो वोट माँगने जा रहा हूँ, न नारे लगाने मैं सिर्फ़ न्याय माँगने जा रहा हूँ। उनके इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि यह आंदोलन राजनीतिक प्रचार नहीं बल्कि न्याय की मांग का प्रतीक है। वास्तव में संविधान नागरिकों को शांतिपूर्ण विरोध का अधिकार देता है, और यदि वह अहिंसक हो, तो उसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं माना जाता।

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गांधी मूर्ति के पास क्यों: गांधी मूर्ति दरभंगा टॉवर का केवल एक प्रतीक नहीं है, यह उस नैतिक चेतना का केंद्र है जहाँ से शहर की आत्मा बोलती है। गांधीजी के चरणों में बैठना, ‘सत्याग्रह’ का चयन करना, और मौन के माध्यम से आवाज़ उठाना यह उस व्यक्ति की पहचान है जिसने सत्ता के गलियारों को करीब से देखा है, और अब उसे आईना दिखाने की हिम्मत रखता है। आर.के. मिश्रा ने कहा मैंने जीवन भर कानून के प्रति निष्ठा रखी। पर आज जब कानून मौन है, तब मेरी निष्ठा अब सत्य के प्रति है। मिथिला की अस्मिता से खिलवाड़ करने वालों को बताना होगा कि यह भूमि चुप नहीं रहेगी।

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मिथिला की अस्मिता और बाहरी गुंडागर्दी: मिथिला की धरती अपने विद्वानों, संतों और संस्कारों के लिए जानी जाती है। यहाँ विचार का सम्मान होता है, हिंसा का नहीं। लेकिन जब बाहरी तत्व आकर इस भूमि की मर्यादा को ठेस पहुँचाते हैं, तो यह केवल एक व्यक्ति पर हमला नहीं, बल्कि मिथिला की आत्मा पर प्रहार होता है। आर.के. मिश्रा का यह आंदोलन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि यह किसी राजनीतिक दल या पद की लड़ाई नहीं, बल्कि मिथिला बनाम बाहरी हस्तक्षेप का प्रतीक बनता जा रहा है।

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प्रशासन की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह: नगर थाना में शिकायत दर्ज होने के बाद भी कार्रवाई का अभाव जनता में असंतोष फैला रहा है। दरभंगा के नागरिकों का कहना है कि यदि एक पूर्व डीजी तक को न्याय नहीं मिल पा रहा, तो आम आदमी की आवाज़ कौन सुनेगा? प्रशासन की यह निष्क्रियता कहीं न कहीं लोकतंत्र के उस स्तंभ को कमजोर कर रही है, जिस पर जनता का विश्वास टिका है।

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धरना नहीं, आत्मसंवाद का मंच: 11 नवंबर से शुरू हो रहा यह अनिश्चितकालीन धरना केवल विरोध नहीं, बल्कि आत्मसंवाद का मंच है। यह वह क्षण होगा जब गांधी मूर्ति के सामने बैठा एक व्यक्ति पूरे सिस्टम से यह सवाल करेगा क्या न्याय अब पद देखकर दिया जाएगा? क्या सत्य अब सत्ता के अनुसार परिभाषित होगा? जन सुराज पार्टी के कार्यकर्ताओं ने इसे “मिथिला सत्याग्रह” का नाम दिया है। वे कहते हैं जब मिथिला की माटी बोलती है, तब सिंहासन भी कांपते हैं।

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क्या सही हैं आर.के. मिश्रा? एक निष्पक्ष दृष्टि से: कानूनी रूप से देखें तो आचार संहिता के दौरान किसी भी सार्वजनिक धरना को प्रशासनिक अनुमति की आवश्यकता होती है। यदि मिश्रा ने प्रशासन को पूर्व सूचना दी है और धरना शांतिपूर्ण ढंग से होगा, तो इसे आचार संहिता का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता। परंतु नैतिक दृष्टि से देखें तो यह कदम उस मौन व्यवस्था को चुनौती देता है जो अपराधियों को संरक्षण देती है। ऐसे में मिश्रा का निर्णय गलत नहीं, बल्कि एक नैतिक प्रतिरोध है जैसे गांधी ने नमक सत्याग्रह के समय किया था। मिथिला हमेशा से ज्ञान, संतुलन और संस्कृति की भूमि रही है। यहाँ संघर्ष तलवार से नहीं, शब्दों से लड़ा जाता है।आर.के. मिश्रा का धरना उसी परंपरा की पुनरावृत्ति है जहाँ अन्याय के खिलाफ आवाज़ गांधी मूर्ति के साए में उठती है, न कि हिंसा के शोर में। इस समय जब राजनीति लकीरों से बाँटी जा रही है, तब कोई व्यक्ति यदि ‘मिथिला के आत्मसम्मान’ की बात करता है, तो वह सिर्फ़ एक नेता नहीं, बल्कि एक विचार बन जाता है। आर.के. मिश्रा का यह कदम शायद कुछ के लिए राजनीतिक हो, पर जनमानस के लिए यह एक भावनात्मक सत्याग्रह है जहाँ सवाल केवल एक घटना का नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की संवेदनहीनता का है।
