"दरभंगा की सड़कों पर घुटती साँसें, चिलचिलाती धूप में बिलखती ज़िंदगियाँ, और व्यवस्था की कलाई पर चढ़ा जाम का फंदा: जब ट्रैफिक व्यवस्था ने दम तोड़ा, पुलिस ग़ायब रही, नगर निगम बना मुसीबत और पूरा शहर बना एक गर्म लोहे सा यातना शिविर!"

जब किसी शहर की सड़कों पर धूप उतरती है, तो वहां सिर्फ गर्मी नहीं उतरती — उतरती है व्यवस्था की पोल, उतरता है तंत्र का असली चेहरा, और उभरता है वो दर्द, जो ना अख़बारों की हेडलाइन बनता है और ना ही नेताओं की जुबान का हिस्सा। यह कहानी बिहार के दरभंगा की है — एक ऐतिहासिक शहर, जिसे मिथिला की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। मगर अब इस शहर की पहचान बन चुकी है — जाम, हाहाकार और सरकारी सुस्ती. पढ़े पुरी खबर......

"दरभंगा की सड़कों पर घुटती साँसें, चिलचिलाती धूप में बिलखती ज़िंदगियाँ, और व्यवस्था की कलाई पर चढ़ा जाम का फंदा: जब ट्रैफिक व्यवस्था ने दम तोड़ा, पुलिस ग़ायब रही, नगर निगम बना मुसीबत और पूरा शहर बना एक गर्म लोहे सा यातना शिविर!"
"दरभंगा की सड़कों पर घुटती साँसें, चिलचिलाती धूप में बिलखती ज़िंदगियाँ, और व्यवस्था की कलाई पर चढ़ा जाम का फंदा"; फोटो: मिथिला जन जन की आवाज

दरभंगा:- जब किसी शहर की सड़कों पर धूप उतरती है, तो वहां सिर्फ गर्मी नहीं उतरती — उतरती है व्यवस्था की पोल, उतरता है तंत्र का असली चेहरा, और उभरता है वो दर्द, जो ना अख़बारों की हेडलाइन बनता है और ना ही नेताओं की जुबान का हिस्सा। यह कहानी बिहार के दरभंगा की है — एक ऐतिहासिक शहर, जिसे मिथिला की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है। मगर अब इस शहर की पहचान बन चुकी है — जाम, हाहाकार और सरकारी सुस्ती।

                                   ADVERTISEMENT

दरभंगा में यातायात व्यवस्था एक ऐसी अधूरी तस्वीर बन चुकी है, जिसमें रंग भरने वाला कोई नहीं। जनता का धैर्य चुक चुका है, पर व्यवस्था की नींद अब भी गहरी है। और यही वह समय है, जब कलम को तलवार बनाना जरूरी हो जाता है। सोमवार की दोपहर थी। शहर के कई हिस्सों में सूरज सिर पर था, और ज़मीन पर लोग पसीने, धूप और जाम की त्रासदी में झुलसते हुए। भंडार चौक से लेकर टेस्टी चौक, दोनार से अललपट्टी, मिर्जापुर से मौलागंज और कोतवाली तक — हर दिशा में वाहन रेंग रहे थे। मगर सड़कें शांत नहीं थीं, वे चीख रहीं थीं। स्कूली बच्चों की प्यास, महिलाओं का झुलसता चेहरा, और बुज़ुर्गों की थरथराती छाया — सब कुछ एक ही सच्चाई बयान कर रहा था: "यह शहर अब सांस नहीं ले पा रहा है।"

                                  ADVERTISEMENT

क्या यह किसी भयंकर हादसे का नतीजा था? नहीं। यह वही हर रोज़ का नरक था, जो दरभंगा की जनता अब नियति समझ चुकी है। ट्रैफिक थाने में पहले जहां 120 से अधिक पुलिसकर्मी कार्यरत थे, आज यह संख्या घटकर 70 से नीचे रह गई है। इनमें से भी कई डिपुटेशन पर, कुछ छुट्टी पर और कुछ बिना जवाब के अनुपस्थित। एक संपूर्ण थाना, जो कभी शहर की सांसों को नियंत्रित करता था, अब खुद वेंटिलेटर पर है।

                                   ADVERTISEMENT

दरभंगा की सड़कों पर ट्रैफिक सिपाही ढूंढने से भी नहीं मिलते। आयकर चौराहे पर लगातार हो रहे जाम पर कोई निगरानी नहीं। कोतवाली चौक पर घंटों रुकी एंबुलेंसें प्रशासन की संवेदनहीनता पर करुण क्रंदन करती नजर आती हैं। क्या यही है हमारी व्यवस्था? यह विडंबना ही है कि शहर को साफ़-सुथरा बनाने वाला नगर निगम, खुद गंदगी और जाम का कारण बन गया है। जिन सड़कों पर सुबह 7 बजे तक कचरा उठ जाने चाहिए, वहां दोपहर 12 बजे भी नगर निगम के ट्रैक्टर जाम में अटके मिलते हैं। निगम का रवैया ऐसा हो चला है मानो उन्होंने तय कर लिया हो कि ट्रैफिक को अस्त-व्यस्त करने में उनकी भी हिस्सेदारी होनी चाहिए। जनता मर रही है, बच्चे धूप में पिघल रहे हैं, एम्बुलेंस रास्ता खोज रही हैं, और हमारे नेता सिर्फ फेसबुक पोस्ट पर जिंदा हैं। विधानसभा में एक प्रश्न नहीं, नगर परिषद की बैठक में एक एजेंडा नहीं दरभंगा के ट्रैफिक जाम पर कोई राजनीतिक विमर्श नहीं। क्या इन सड़कों से कोई नेता नहीं गुजरता?

                                   ADVERTISEMENT

यह चुप्पी किसी अज्ञानता का नहीं, यह सत्ता की सुविधा की चुप्पी है जहां जनता की तकलीफ सिर्फ चुनावी मुद्दों तक सीमित है। जब दरभंगा के यातायात थानाध्यक्ष से सवाल किया गया, उन्होंने कहा “हम प्रयासरत हैं।” यह शब्द अब जनता के लिए गाली बन चुका है। हर बार प्रयास का वादा, हर बार फेल व्यवस्था। कोई ठोस प्लान नहीं, कोई रोडमैप नहीं। ना कोई आधुनिक ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम, ना सीसीटीवी की उचित मॉनिटरिंग, ना इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार।

                                   ADVERTISEMENT

प्रशासनिक लापरवाही अब शहर की नसों में ज़हर बन चुकी है। पिछले महीने एक गर्भवती महिला की एंबुलेंस भंडार चौक पर फंसी रही बच्चा रास्ते में पैदा हुआ। एक बुज़ुर्ग व्यक्ति की मौत मिर्जापुर के पास इसी जाम में हो गई क्योंकि समय पर हॉस्पिटल नहीं पहुंच सके। ये खबरें स्थानीय स्तर पर दबा दी जाती हैं, मगर इनकी गूंज हर आम दरभंगावासी के दिल में अब तक गूंजती है।

                                ADVERTISEMENT

अब जनता कह रही है — "हमें विकास नहीं चाहिए, कम से कम रास्ता तो दो!"

समाधान की तलाश या सिर्फ खानापूर्ति?

यदि प्रशासन जाग जाए, तो समाधान मुश्किल नहीं हैं: स्मार्ट ट्रैफिक सिग्नल्स की स्थापना

भीड़भाड़ वाले समय में वाहनों की सीमित अनुमति (रोटेशन पॉलिसी)

नगर निगम के कचरा उठाव का समय निर्धारित करना

फुटपाथ अतिक्रमण हटाना और यातायात प्रशिक्षकों की नियुक्ति

ऑटो स्टैंड और ई-रिक्शा स्टॉप के लिए चिन्हित स्थान

                                   ADVERTISEMENT

एक शहर की पहचान उसकी सड़कों से होती है। दरभंगा की सड़कें आज सिर्फ जर्जर नहीं, बेबस, असहाय और अपमानित हैं। ये सड़कें अब सिर्फ रास्ता नहीं देतीं, ये अब घुटन, गुस्से और घावों का सफ़र बन चुकी हैं। इस रिपोर्ट को लिखते वक्त मेरी कलम कांप रही थी, क्योंकि इसमें सिर्फ अक्षर नहीं हैं इसमें वो कराहें हैं जो मैंने अपनी आंखों से देखीं, वो सिसकियाँ हैं जो मैंने सुनीं। ये खबर नहीं, ये दरभंगा की सड़कों की चीख है। अब प्रशासन को यह तय करना है क्या वे इन चीखों को सुनेंगे, या दरभंगा का दम घुटने देंगे?