"कफन में लिपटा था कोई और, मातम उस पर था जो ज़िंदा था – दरभंगा पुलिस की इस गलती को क्या कहेंगे, चूक या साजिश?"

जहाँ न्याय का मंदिर है, वहीं झूठ का घंटा भी बज सकता है — यह किसी व्यंग्य लेखक की कल्पना नहीं, दरभंगा पुलिस की एक चौंकाने वाली कहानी है, जिसने पूरे तंत्र को शर्मसार कर दिया है। एक ऐसा किस्सा जो कागज़ों में हत्या, चिताओं में लाश, न्यायालय में गवाही, और अंत में एक ज़िंदा इंसान की वापसी के साथ खत्म नहीं, बल्कि शुरू होता है. पढ़े पुरी खबर......

"कफन में लिपटा था कोई और, मातम उस पर था जो ज़िंदा था – दरभंगा पुलिस की इस गलती को क्या कहेंगे, चूक या साजिश?"
"कफन में लिपटा था कोई और, मातम उस पर था जो ज़िंदा था – दरभंगा पुलिस की इस गलती को क्या कहेंगे, चूक या साजिश?"

दरभंगा: जहाँ न्याय का मंदिर है, वहीं झूठ का घंटा भी बज सकता है यह किसी व्यंग्य लेखक की कल्पना नहीं, दरभंगा पुलिस की एक चौंकाने वाली कहानी है, जिसने पूरे तंत्र को शर्मसार कर दिया है। एक ऐसा किस्सा जो कागज़ों में हत्या, चिताओं में लाश, न्यायालय में गवाही, और अंत में एक ज़िंदा इंसान की वापसी के साथ खत्म नहीं, बल्कि शुरू होता है।

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क्या कोई जीवित भी मारा जा सकता है?

मब्बी थाना कांड संख्या 22/25 — एक मामूली सा नंबर नहीं, ये उस व्यवस्था का प्रतीक है जिसमें इंसान की ज़िंदगी पहचान के भरोसे बिक जाती है। धीरज कुमार, जो इस मामले का सूचक है, वो जब अपने ‘मरे हुए’ भाई भोला कुमार राम को जिंदा लेकर दरभंगा के विशेष न्यायाधीश एससी/एसटी की अदालत में पहुंचा, तो इंसाफ की कुर्सियाँ काँप गईं।

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पुलिस की लिखावट में मौत तय होती है... चेहरों की नहीं: 28 फरवरी को पुलिस ने धीरज को फोन किया — आइए, आपके भाई की लाश मिली है। डीएमसीएच में एक विकृत, अधजली सी लाश दिखाई गई, जिसकी उम्र 20-25 वर्ष थी। लेकिन धीरज का भाई तो अभी 16-17 का था! बावजूद इसके, पुलिस ने जबरन शव की पहचान करवाई और 1 मार्च को सुपुर्द भी कर दिया गया। अंतिम संस्कार हुआ, आँसू बहाए गए, तर्पण किया गया... और दूसरी तरफ, वही ‘मरा हुआ’ भोला, नेपाल के कटारी चौक में ज़िंदा मिला।

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क्या इसे गलती कहेंगे? नहीं! ये गलती नहीं, यह शासन के नाम पर अपहरण और न्याय के नाम पर अभिनय है।

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भोला ने बताया — 2-3 अज्ञात लोग उसे उठाकर ले गए, नेपाल में एक कमरे में बंद कर दिया। कोई मुकदमा नहीं, कोई खोज नहीं, और सबसे बड़ी बात — पुलिस को फर्क नहीं पड़ा कि जो शव उसने दिखाया, वो किसका था!

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अब सवालों का ज्वालामुखी — जवाब कहाँ है?

????तो मरा कौन? अल्लपट्टी रेलवे गुमटी के पास जो घायल मिला, जिसकी इलाज के दौरान मौत हुई और जिसे भोला मानकर जला दिया गया — वो कौन था? उसका परिवार कहाँ है? उसकी कहानी कौन सुनेगा?

????राहुल कुमार निर्दोष या बलि का बकरा? जिसे हत्या के अभियोग में जेल भेजा गया — अब जब भोला ज़िंदा है, तो क्या उसे बिना किसी अपराध के जेल में रखकर तंत्र ने एक और अपराध नहीं किया?

????सरकारी मुआवजा या सत्य की बोली? मृतक के नाम पर परिजनों को मिले 4 लाख 25 हज़ार रुपये — क्या अब ये पैसा ‘झूठ के एवज में पुरस्कार’ बनकर रहेगा?

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यह मात्र पुलिस की चूक नहीं — यह लोकतंत्र में विश्वास की चिता है: क्या पुलिस प्रशासन केवल दबाव में काम कर रहा था? या फिर ये किसी बड़े रैकेट की पर्देदारी है जिसमें पहचान की लाशों से खेला जाता है? जब पहचान पत्र, उंगलियों के निशान, डीएनए रिपोर्ट सब उपलब्ध हैं, तो किस आधार पर ये पहचान की मजबूरी गढ़ी गई?

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क्या दरभंगा की सड़कों पर अब पहचान के बिना मर जाना ही अंतिम सच है?

यह मामला सिर्फ एक व्यक्ति के जीवित निकल आने का नहीं, पूरे तंत्र की असंवेदनशीलता, लापरवाही और निर्लज्जता का चिट्ठा है। यदि आज भोला सामने न आता, तो यह मामला भी ‘फाइल बंद’ में सिमट जाता और एक निर्दोष व्यक्ति की लाश अनाम श्मशान में गुम हो जाती। ये ख़बर नहीं, धिक्कार है उस व्यवस्था पर, जो आँखों के सामने ज़िंदा को लाश और लाश को कहानी बना देती है।अब देखना ये है कि इस जिंदा गवाही के सामने पुलिस तंत्र कैसे सिर उठाता है, और जनता कब तक ऐसे सच से मुँह फेरती रहेगी?