प्रीति मर गई, पर उसकी आत्मा आज दरभंगा की सड़कों पर भटक रही है… हर दीवार पर लिखा है ‘इसे आत्महत्या मत कहो, ये हत्या है!’ डीजीपी श्री विनय कुमार जी, अब ये आपके निर्णय की घड़ी है…या तो प्रीति को न्याय दीजिए, या यह स्वीकार कीजिए कि सिस्टम अब केवल ताकतवरों का गुलाम है!

प्रीति झा अब इस दुनिया में नहीं है। उसकी मुस्कान, उसका जीवन, उसकी पहचान सबकुछ एक संदिग्ध साज़िश की बलि चढ़ा दिया गया। लेकिन सवाल अब सिर्फ उसकी मौत का नहीं है। सवाल उस खामोशी का है जो व्यवस्था की चुप्पी में पिघलती नहीं, सवाल उस संदेह का है जो पुलिस और डॉक्टरों की भूमिका पर गहराता जा रहा है। सवाल उस पिता की चीख का है जो अपनी बेटी के लिए इंसाफ मांगते हुए सड़क पर बैठ गया ताकि उसकी लाडली की आत्मा को शांति मिले. पढ़े पुरी खबर......

प्रीति मर गई, पर उसकी आत्मा आज दरभंगा की सड़कों पर भटक रही है… हर दीवार पर लिखा है ‘इसे आत्महत्या मत कहो, ये हत्या है!’ डीजीपी श्री विनय कुमार जी, अब ये आपके निर्णय की घड़ी है…या तो प्रीति को न्याय दीजिए, या यह स्वीकार कीजिए कि सिस्टम अब केवल ताकतवरों का गुलाम है!
प्रीति मर गई, पर उसकी आत्मा आज दरभंगा की सड़कों पर भटक रही है… हर दीवार पर लिखा है ‘इसे आत्महत्या मत कहो, ये हत्या है!’ डीजीपी श्री विनय कुमार जी, अब ये आपके निर्णय की घड़ी है…या तो प्रीति को न्याय दीजिए, या यह स्वीकार कीजिए कि सिस्टम अब केवल ताकतवरों का गुलाम है!

दरभंगा: प्रीति झा अब इस दुनिया में नहीं है। उसकी मुस्कान, उसका जीवन, उसकी पहचान सबकुछ एक संदिग्ध साज़िश की बलि चढ़ा दिया गया। लेकिन सवाल अब सिर्फ उसकी मौत का नहीं है। सवाल उस खामोशी का है जो व्यवस्था की चुप्पी में पिघलती नहीं, सवाल उस संदेह का है जो पुलिस और डॉक्टरों की भूमिका पर गहराता जा रहा है। सवाल उस पिता की चीख का है जो अपनी बेटी के लिए इंसाफ मांगते हुए सड़क पर बैठ गया ताकि उसकी लाडली की आत्मा को शांति मिले।

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24 मई को दरभंगा के लहेरियासराय में एक बेजोड़ दृश्य दिखा। पुरानी दीवारों के सामने, खुरचती हुई पेंट के नीचे, संविधान की आत्मा कराह रही थी। एक मंच नहीं, वह पीड़ा की अदालत थी जहाँ न्याय की गुहार लगा रहे थे वो लोग, जिन्हें सत्ता की गलियों से सिर्फ नज़रअंदाज़ी मिली है। मंच पर खड़े होकर उन्होंने काँपती आवाज़ में कहा "मेरी बेटी ने आत्महत्या नहीं की, उसे मारा गया है। और यह हत्या मेरे ही घर में, मेरे ही विश्वासों के भीतर की गई है। मेरा दामाद हत्यारा है, और वह आज़ाद घूम रहा है।"

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नेता आए, लेकिन यह सियासत नहीं, सच्चाई की बात थी: धरना में हर दल के प्रतिनिधि आए कांग्रेस से सीताराम चौधरी, राजद से डॉ. मुकेश कुमार निराला, मिथिलावादी नेता विद्याभूषण राय, अखिल भारतीय मिथिला पार्टी से मनोज झा, ब्राह्मण महासभा के प्रदेश अध्यक्ष रंजीत झा। लेकिन यह किसी राजनीतिक एजेंडे का मंच नहीं था। यह वह जमीन थी जहाँ हर नेता को अपनी राजनीतिक टोपी उतारनी पड़ी और इंसानियत के नंगे सिर के साथ खड़ा होना पड़ा।

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राजद नेता डॉ. निराला ने भावुक स्वर में कहा, "तेजस्वी यादव तक यह आवाज़ पहुंचेगी। हम दरभंगा के इस न्याय युद्ध को राजधानी तक ले जाएंगे। अगर डीजीपी निष्क्रिय रहेंगे, तो हम जनसमर्थन से उन्हें जगाने का काम करेंगे।"

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वहीं, रंजीत झा ने सीधे तौर पर मेडिकल रिपोर्ट पर उंगली उठाते हुए कहा "जब डॉक्टर और पुलिस सत्ता के इशारे पर काम करें, तो फिर जनता कहाँ जाए? हम मांग करते हैं कि इसकी न्यायिक जांच हो, और दोषियों को उम्रकैद मिले।"

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प्रियंका झा एक औरत, एक सामाजिक चेतना की प्रतीक: समाजसेविका प्रियंका झा ने जब माइक संभाला, तब समूचा माहौल स्तब्ध था। उनके शब्दों में प्रीति की आत्मा बोल रही थी "यह सिर्फ एक लड़की की हत्या नहीं है, यह हर उस औरत का अपमान है जो भरोसे में रिश्ते बनाती है और फिर उन्हीं रिश्तों में दम तोड़ देती है। हमारा संघर्ष तब तक चलेगा जब तक कानून दोषियों को सजा नहीं देता और प्रीति को इंसाफ नहीं मिलता।"

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दीवारें बोल रही थीं 'न्याय दो': धरना स्थल की जर्जर दीवारें आज खामोश गवाह थीं उस अन्याय की, जो किसी तेज़ धार हथियार से नहीं, बल्कि लापरवाह व्यवस्था से हुआ। बैनर पर प्रीति की तस्वीर उस घायल जनतंत्र का चेहरा बन चुकी थी।

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ज्ञापन और आग्रह पर क्या सिस्टम सुनेगा? धरने के अंत में प्रीति के माता-पिता और प्रियंका झा ने मिलकर पुलिस महानिरीक्षक को ज्ञापन सौंपा। ज्ञापन में साफ तौर पर न्यायिक जांच, आरोपी की गिरफ्तारी और चिकित्सा रिपोर्ट की उच्चस्तरीय पुनः जाँच की मांग की गई।

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न्याय सिर्फ शब्द नहीं, सांस बन चुका है यहां: प्रीति अब नहीं है। लेकिन उसका नाम दरभंगा की गलियों में गूंज रहा है जैसे चुप्पी भी अब चीखने लगी है। यह सिर्फ एक केस नहीं, यह हमारे समाज की उस सड़ांध की निशानी है जहाँ लड़की की जान की कीमत उसकी शादी से तय होती है। जहाँ बाप को बेटी की मौत के बाद दर-दर भटकना पड़ता है और कानून फाइलों में दफ्न हो जाता है।

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यह रिपोर्ट नहीं, यह 'बेटी के न्याय' की पुकार है: हमारे देश में बेटियाँ अक्सर समाचार बनती हैं कभी दहेज के कारण, कभी बलात्कार के, और कभी हत्या के। लेकिन यह ज़रूरी है कि वे सिर्फ खबर न बनें, क्रांति का कारण बनें। प्रीति झा की हत्या की गूँज तब तक शांत नहीं होगी, जब तक उसके हत्यारे सलाखों के पीछे नहीं होंगे और उसकी आत्मा को न्याय की चादर नसीब नहीं होगी। यह कहानी अभी अधूरी है। पुलिस, प्रशासन और राजनेताओं को यह तय करना है क्या वे इतिहास के कटघरे में आरोपी बनेंगे, या न्याय के भागीदार?