क्या दरभंगा मेडिकल कॉलेज अब भगवान भरोसे चल रहा है? जब बापू की प्रतिमा पर बालू डाल दिया गया और प्रिंसिपल डॉ. अलका झा को खबर भी पत्रकारों से मिली... मंत्री मंगल पांडे जवाब देंगे या आत्मा की चीखें यूं ही अनसुनी रह जाएंगी? पढ़िए आशिष कुमार की ज़मीर झकझोरने वाली रिपोर्ट!
बापू आज फिर रोए होंगे। देश की आज़ादी के लिए जिसने लाठियां खाईं, उस महापुरुष की प्रतिमा आज दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर में बालू से ढँक दी गई। यह कोई आम असावधानी नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक और संस्थागत पतन का एक नग्न उदाहरण है. पढ़े पुरी खबर.......

दरभंगा: बापू आज फिर रोए होंगे। देश की आज़ादी के लिए जिसने लाठियां खाईं, उस महापुरुष की प्रतिमा आज दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर में बालू से ढँक दी गई। यह कोई आम असावधानी नहीं, बल्कि हमारे सामाजिक और संस्थागत पतन का एक नग्न उदाहरण है।
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और इससे भी दुखद पहलू यह रहा कि जब इस घटना के संबंध में कॉलेज की प्रिंसिपल डॉ. अलका झा से पत्रकारों ने सवाल किया, तो उनका जवाब था: "मुझे तो आप लोगों से ही जानकारी मिल रही है।" यह कथन न केवल हैरान करता है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा करता है कि जब कॉलेज परिसर में राष्ट्रपिता की मूर्ति पर भी निर्माण कार्य के नाम पर बालू डाल दिया जाता है, और कॉलेज का शीर्ष प्रशासन इससे पूरी तरह अनजान होता है तो फिर शेष क्या बचता है?
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प्रिंसिपल की चौंकाने वाली प्रतिक्रिया: प्रिंसिपल डॉ. अलका झा का कहना था कि यह निर्माण कार्य सरकार द्वारा अधिकृत एजेंसी BMICL (बिहार मेडिकल इंफ्रास्ट्रक्चर कॉर्पोरेशन लिमिटेड) द्वारा किया जा रहा है। उन्होंने यह भी कहा: "मैं पूछती हूँ कांट्रेक्टर से कि ऐसा क्यों हुआ, फिर कोई कार्रवाई होगी।"
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यह लहजा और शैली अपने-आप में इस बात की पुष्टि करती है कि अब यह शिक्षण संस्थान "तंत्र के भरोसे" नहीं बल्कि "ठेकेदारों के भरोसे" चल रहा है। राष्ट्रपिता की मूर्ति कहाँ स्थित है, यह भी अगर प्रिंसिपल को नहीं पता, तो सवाल उठता है कॉलेज के प्रबंधन की निगरानी व्यवस्था आखिर है कहाँ?
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जब गांधी की प्रतिमा बालू में दब जाती है और प्रिंसिपल की ज़ुबान पर ‘मुझे जानकारी नहीं’ की परत जम जाती है तब सवाल यह उठता है कि क्या अब कुर्सियों पर संवेदना नहीं, सिर्फ सुविधा बैठती है?
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जिस मेडिकल कॉलेज में भविष्य के डॉक्टर तैयार होते हैं, वहाँ अगर इतिहास का आदर्श ही अपमानित हो जाए तो क्या हम आने वाली पीढ़ियों को सिर्फ डिग्रियाँ देंगे या मूल्यहीनता की घुट्टी भी?
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दरभंगा की मिट्टी में गांधी के कदमों की छाप थी, अब वही धरती उनकी मूर्ति को भी पहचानने से इंकार कर रही है। शर्म सिर्फ उस बालू पर नहीं है, जो प्रतिमा पर डाली गई बल्कि उस व्यवस्था पर है, जो अपनी आँखें मूंदे बैठी है।
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पत्रकार बन गए सूचना स्रोत: जिस घटना की जानकारी खुद कॉलेज प्रशासन को नहीं, बल्कि पत्रकारों से मिल रही है, वह इस बात का संकेत है कि अब कॉलेज का संचालन प्रिंसिपल नहीं, पत्रकार कर रहे हैं। घटनाएं हो रही हैं, और कॉलेज प्रशासन "बेखबर-सा" अपनी कुर्सी की गर्मी में गाफिल बैठी है। क्या अब प्रिंसिपल का कॉलेज में आना मात्र एक औपचारिकता है? क्या उन्हें यह जानने की ज़रूरत नहीं कि परिसर में कौन-सा काम कहाँ हो रहा है? या फिर अब यह कॉलेज ईश्वर भरोसे चलाया जा रहा है?
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जब मूर्तियाँ दबती हैं, आत्मा कराहती है: गांधी सिर्फ एक प्रतिमा नहीं हैं। वे एक विचार हैं। एक चेतना हैं। एक जीवित मूल्य हैं। और जब उस विचार को इस तरह बालू में दबा दिया जाए तो यह हमारे मौजूदा तंत्र की वैचारिक दीनता और बौद्धिक दरिद्रता का प्रतीक बन जाता है। क्या BMICL जैसी एजेंसियाँ इतनी स्वतंत्र हो गई हैं कि अब उन्हें यह भी नहीं दिखता कि वे कहाँ निर्माण सामग्री डाल रहे हैं? और अगर ऐसा है, तो फिर उन्हें जवाबदेही के कठघरे में खड़ा करना आज आवश्यक हो गया है।
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क्या स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे देख रहे हैं? यह सवाल बिहार सरकार और विशेष रूप से स्वास्थ्य विभाग के मंत्री मंगल पांडे से भी है: क्या अब आपके विभाग में इस तरह की असंवेदनशीलता आम बात हो चुकी है? क्या किसी महापुरुष की प्रतिमा के साथ ऐसा व्यवहार करने के बाद भी कोई सख्त कार्रवाई नहीं होगी? क्या कोई जवाबदेही तय की जाएगी, या फिर यह मामला भी फाइलों में दबा रहेगा?
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दरभंगा मेडिकल कॉलेज में बापू की मूर्ति के साथ हुआ यह व्यवहार एक प्रतीक है हमारी सामूहिक बेपरवाही का। एक तरफ कॉलेज प्रशासन पूरी तरह अनजान बना बैठा है, दूसरी तरफ निर्माण एजेंसी की लापरवाही चरम पर है। और तीसरी तरफ, शासन-प्रशासन की चुप्पी हर संवेदनशील नागरिक के भीतर एक अनकहा क्रोध भर देती है। अब समय है इस चुप्पी को तोड़ने का। अब वक्त है जिम्मेदारों को कठघरे में खड़ा करने का। क्योंकि अगर आज गांधी की मूर्ति बालू में दब सकती है, तो कल संविधान की आत्मा भी किसी ठेके पर गिरवी रख दी जाएगी।