हदीसा की कोख लहूलुहान, इंसाफ की चौखट खामोश, और थानेदार की कलम निष्क्रिय नारी गांव में इंसानियत को रौंदती दहेज की लाठियाँ और घनश्यामपुर थाना की शर्मनाक सुस्ती!

दरभंगा के घनश्यामपुर प्रखंड अंतर्गत नारी गांव में एक नौ माह की गर्भवती महिला हदीसा खातून के साथ जो हुआ, वह इंसानियत पर तमाचा है। दो बच्चों की मां, तीसरी संतान को जन्म देने वाली हदीसा को उसके पति मो. सुभान, सास शाहजहां खातून, ननद मोजीदा, दो देवर और दो मामा ने मिलकर न सिर्फ पीटा, बल्कि उसकी चीखों को भी कपड़े से मुंह बांधकर घोंट दिया।क्या कसूर था हदीसा का? केवल इतना कि उसके गरीब पिता दो लाख रुपये की दहेज नहीं दे सके. पढ़े पुरी खबर......

हदीसा की कोख लहूलुहान, इंसाफ की चौखट खामोश, और थानेदार की कलम निष्क्रिय नारी गांव में इंसानियत को रौंदती दहेज की लाठियाँ और घनश्यामपुर थाना की शर्मनाक सुस्ती!
हदीसा की कोख लहूलुहान, इंसाफ की चौखट खामोश, और थानेदार की कलम निष्क्रिय नारी गांव में इंसानियत को रौंदती दहेज की लाठियाँ और घनश्यामपुर थाना की शर्मनाक सुस्ती!

दरभंगा के घनश्यामपुर प्रखंड अंतर्गत नारी गांव में एक नौ माह की गर्भवती महिला हदीसा खातून के साथ जो हुआ, वह इंसानियत पर तमाचा है। दो बच्चों की मां, तीसरी संतान को जन्म देने वाली हदीसा को उसके पति मो. सुभान, सास शाहजहां खातून, ननद मोजीदा, दो देवर और दो मामा ने मिलकर न सिर्फ पीटा, बल्कि उसकी चीखों को भी कपड़े से मुंह बांधकर घोंट दिया। क्या कसूर था हदीसा का? केवल इतना कि उसके गरीब पिता दो लाख रुपये की दहेज नहीं दे सके।

घनश्यामपुर थानाध्यक्ष: निष्क्रियता या मिलीभगत?

अब आइए इस खबर के सबसे घिनौने और खतरनाक हिस्से पर: थानाध्यक्ष अजीत कुमार, जिनके पास कानून की ताकत है, जिनके पास महिलाओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी है, और जिनके पास पीड़िता की रक्षा करने की कसम है... लेकिन अफसोस, शायद उन्होंने अपनी आत्मा भी वर्दी के साथ गिरवी रख दी है। पीड़िता की ओर से मामला दर्ज हुए तीन दिन से ज्यादा हो गए। थाने में लिखित आवेदन, मेडिकल रिपोर्ट, गवाह, पड़ोसियों के बयान, सब कुछ मौजूद है। लेकिन क्या हुआ? अब तक एक भी आरोपी गिरफ्तार नहीं! ना छापेमारी, ना पूछताछ, ना कोई दबाव।

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तो फिर क्या कर रहे हैं थानाध्यक्ष?

पुलिसिया सूत्रों से खबर मिली है कि थानाध्यक्ष साहब ने पहले इस मामले को हल्के में लिया। उन्हें यह "घरेलू विवाद" लगा। क्या नौ माह की गर्भवती महिला की पेट पर लाठी मारना, मुंह में कपड़ा ठूंसकर पीटना, "घरेलू विवाद" कहलाता है? अगर यही "घरेलू मामला" है, तो इस देश की न्याय व्यवस्था को नाली में बहा देना चाहिए।

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कुर्सी का गुरूर या रिश्वत का रंग?

कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और ग्रामीणों का कहना है कि सुभान का परिवार पैसे वाला है और थाने से पुराना मेलजोल रखता है। क्या थानाध्यक्ष को कोई लिफाफा, कोई सिफारिश, या कोई निजी लाभ मिल गया है? क्योंकि निष्क्रियता अब केवल लापरवाही नहीं लगती यह सुनियोजित चुप्पी है। "अगर गर्भवती की जान पर हमले के बाद भी गिरफ्तारी नहीं होती, तो समझ लीजिए थाना अब न्याय का मंदिर नहीं, किसी जाति, धर्म और पैसे का भूतिया दरबार बन चुका है।"

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जनता पूछ रही है... जवाब कौन देगा?

क्या गर्भवती महिला को न्याय देने की जिम्मेदारी घनश्यामपुर थाना की नहीं थी?

क्या मेडिकल रिपोर्ट पर्याप्त नहीं है?

क्या आरोपी अबतक घरों में घूमेंगे और पुलिस उनसे पूछेगी भी नहीं?

क्या न्याय के नाम पर थानाध्यक्ष सिर्फ फोटो खिंचवाने और अधिकारियों के सामने सलामी भर देने के लिए हैं?

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माफ नहीं करेगा इतिहास... और ना ही पीड़िता की कोख: थानाध्यक्ष की यह चुप्पी, यह ठंडापन, यह निष्क्रियता सिर्फ प्रशासनिक अपराध नहीं है, यह नैतिक बलात्कार है उस भरोसे का जो जनता थाने से करती है। अगर 48 घंटे के भीतर दोषियों की गिरफ्तारी नहीं होती, तो नारी गांव की गलियों से लेकर दरभंगा के चौक तक एक स्वर उठेगा "अब खामोश नहीं रहेंगे!" घनश्यामपुर थाना के दरवाज़े पर जनता की भीड़, आक्रोश और सवालों का तूफ़ान खड़ा होगा। वर्दी की गर्मी और कुर्सी की स्थिरता को जनक्रांति झकझोर देगी। और तब कोई माई का लाल चाहे वो सुभान हो या सुभान का संरक्षक कानून से ऊपर नहीं रहेगा!