माँ काली के चरणों में समर्पित 'कालीमणि' का भव्य लोकार्पण: मिथिला की मिट्टी से जन्मी भक्ति की भाषा, मणिकांत झा की लेखनी से निकली आत्मा की पुकार, और लोकजीवन से जुड़े गीतों की एक दिव्य शृंखला
मिथिला की सांस्कृतिक राजधानी से।कभी-कभी कोई रचना एक पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि एक युग के भावात्मक पुनर्जागरण के रूप में जन्म लेती है। ‘कालीमणि’ ऐसी ही एक काव्यांजलि है, जिसमें न केवल भक्ति है, न केवल रचना है, बल्कि माँ काली के चरणों में आत्मा की पूर्णाहुति है। मणिकांत झा की यह नवीनतम कृति मणिशृंखला का वह अध्याय है, जहाँ शब्द साधना बन जाती है और कविता स्तुति. पढ़े पुरी खबर........

दरभंगा: मिथिला की सांस्कृतिक राजधानी से।कभी-कभी कोई रचना एक पुस्तक के रूप में नहीं, बल्कि एक युग के भावात्मक पुनर्जागरण के रूप में जन्म लेती है। ‘कालीमणि’ ऐसी ही एक काव्यांजलि है, जिसमें न केवल भक्ति है, न केवल रचना है, बल्कि माँ काली के चरणों में आत्मा की पूर्णाहुति है। मणिकांत झा की यह नवीनतम कृति मणिशृंखला का वह अध्याय है, जहाँ शब्द साधना बन जाती है और कविता स्तुति।
"कालीमणि" का लोकार्पण एक आयोजन नहीं, एक साधना का उत्सव था: दरभंगा के एक प्रतिष्ठित होटल में जब इस ग्रंथ का लोकार्पण हुआ, तो वह क्षण केवल औपचारिक नहीं रहा वह भाव का, भाषा का और भूमि का मिलन बन गया। यह केवल कवि के हृदय का प्राकट्य नहीं था, यह मिथिला की हजारों वर्षों से बहती उस भक्ति-धारा की एक नवीन धारा का आगमन था, जिसमें विद्वानों, चिकित्सकों, शिक्षाविदों, कलाकारों और साहित्यकारों की उपस्थिति ने उसे महाकाव्य का स्वरूप दे दिया।
"मणि शृंखला": एक तपस्वी की काव्य-पथ यात्रा: मणिकांत झा की मणि शृंखला कोई सरल कविताओं की श्रृंखला मात्र नहीं है। यह श्रृंखला उस आत्मिक पथ की कथा है, जहाँ कवि अपने भीतर उतरता है और लोकचेतना में रम जाता है। ‘कालीमणि’ उस श्रृंखला की नवीनतम मणि है, जिसमें 80 से अधिक गीतों के माध्यम से भगवती के विविध रूपों, उनके आंतरिक भावों और जीवन के संघर्षों में उनकी उपस्थिति का गहरा चित्रण किया गया है। यह कृति, महात्मा गांधी शिक्षण संस्थान से प्रकाशित होकर, भक्ति-रस की उस परंपरा को पुनः पुष्पित करती है जिसे विद्यापति ने अपने समय में सृजन की सर्वोच्चता दी थी। विद्यापति जहाँ 'जय जय भैरवी असुर भयावनि' गा रहे थे, वहीं मणिकांत झा आज ‘माँ के नयन में मनुष्य की पीड़ा’ को देख पा रहे हैं।
उपस्थित विशिष्टजनों की वाणी में भक्ति की गूंज: कार्यक्रम में जब विद्यापति सेवा संस्थान के महासचिव डॉ. वैद्यनाथ चौधरी ‘बैजू’ ने मंच सँभाला, तो उनके शब्दों में केवल साहित्यिक टिप्पणी नहीं, मिथिला की आत्मा का घोष था। उन्होंने कहा: मिथिला में रसों की बाढ़ रही है, परंतु भक्ति रस वह स्रोत है, जो किसी नदी की तरह बहता नहीं, आत्मा की तरह चुपचाप समाहित होता है। 'कालीमणि' उसी आत्मा का उद्घोष है।
साहित्य अकादमी के पूर्व मैथिली प्रतिनिधि प्रो. प्रेम मोहन मिश्र ने मिथिला की परंपरा में काली उपासना की ऐतिहासिक और सांस्कृतिक भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा: मिथिला की धरती पर काली मात्र देवी नहीं, माँ हैं वह माँ जो दुर्गा भी हैं, और करुणा भी। मणिकांत झा की यह कृति हमें हमारी जड़ों से जोड़ती है।
वरिष्ठ पत्रकार विष्णु कुमार झा ने अपने वक्तव्य में ‘कालीमणि’ को मनुष्य के अंतरतम की पीड़ा का भी संवाद बताया: भक्ति केवल पूजा नहीं है, वह जीवन के सबसे अंतरंग प्रश्नों का उत्तर भी है। इस संग्रह में भक्ति का एक-एक गीत ऐसा लगता है मानो कोई तन्हा मन मां के आँचल में सुबक रहा हो।
गीत-संगीत और सृजन की संगति: जहाँ शब्द थम जाते हैं, वहाँ संगीत बोलता है और यही हुआ 'कालीमणि' के लोकार्पण में भी। डॉ. सुषमा झा, केदारनाथ कुमर, दीपक कुमार झा, जानकी ठाकुर और वीणा झा की प्रस्तुतियाँ ऐसी थीं मानो स्वयं माँ भगवती उस क्षण वहाँ उपस्थित हों। जब वीणा झा की स्वरांजलि में "मा काली के चरण में अर्पण हमर प्राण" जैसी पंक्तियाँ गूँजी, तो उपस्थित जनसमूह स्तब्ध था न किसी की नजर टिकी, न वाणी निकली, केवल अनुभूति शेष थी।
गाँव की मिट्टी से मंच तक: एक सांस्कृतिक संवाद: पूर्व मुखिया जीवकांत मिश्र का स्वागत भाषण, प्रवीण कुमार झा का संचालन, और मणिकांत झा का आत्मीय धन्यवाद सब मिलकर इस आयोजन को एक ऐसी सामाजिक साधना में बदल देते हैं, जिसमें हर उपस्थित व्यक्ति कोई अतिथि नहीं, बल्कि सहभागी लगता है। जब कवि मणिकांत झा ने मंच से कहा: मणिशृंखला मेरी तपस्या है, और कालीमणि मेरी पूर्णाहुति। यह मेरी नहीं, हम सबकी आराधना है, तो उनकी आँखों में एक संतोष था, एक नत-मस्तक साधक की अनुभूति जिसने शब्दों को केवल लिखा नहीं, उन्हें जिया।
समाज की उपस्थिति, संस्कृति की स्वीकार्यता: इस समारोह की सबसे बड़ी विशेषता थी आम से खास तक का समान रूप से उपस्थित होना। मंच और दर्शकदीर्घा में कोई भेद नहीं था। विवेकानंद झा (सेवानिवृत्त IAS अधिकारी) से लेकर भरोसा देवी, नीलम झा, नीधि झा, पुष्पक, आदर्श, तत्सम जैसे नवपीढ़ी के प्रतिनिधियों तक हर किसी की आँखों में एक जिज्ञासा थी, एक जुड़ाव था। यह स्पष्ट संकेत है कि मणिकांत झा की लेखनी समाज के हर वर्ग को छू रही है वह कविता जो ग्रामीण स्त्री के आँचल से लेकर विश्वविद्यालय के भाषण मंच तक पहुँचती है।
"कालीमणि" एक काव्य, एक आराधना, एक चिरंतन आलोक: कालीमणि मणिकांत झा की कोई व्यक्तिगत उपलब्धि नहीं है यह मिथिला के लोकजीवन, भक्ति परंपरा, और आत्मचिंतन की वह धरोहर है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए एक दीपशिखा बन कर जलेगी।
यह भक्ति की पुनर्परिभाषा है जहाँ माँ काली अब केवल शक्ति नहीं, बल्कि संवेदना, सृजन और संस्कार की प्रतीक हैं। यह साहित्य का वह स्वरूप है जहाँ शब्दों के भीतर देवत्व बसता है। कालीमणि एक कृति नहीं, भक्ति की अग्नि से निःसृत अमृत-बूँद है। मिथिला के हृदय से निकली, आत्मा के आकाश में गूंजती माँ काली की स्तुति की एक अमर गाथा।