जब प्रेम चंद प्रसाद के मौन से उठी गूंज सचिवालय तक सिंहवाड़ा CHC में कनीय को प्रभारी बनाकर सीएस ने जिस विभागीय अनुशासन को कुचला, उसे भाजपा जिलाध्यक्ष की कलम और पत्रकार के सवालों ने अंततः न्याय की मेज़ तक पहुँचा दिया; क्या अब भी जवाबदेही पर पर्दा रहेगा?

यह कोई मामूली स्वास्थ्य विभागीय फेरबदल नहीं है। यह उस सत्ता-संरक्षित चुप्पी का पर्दाफाश है, जो नियमों की गर्दन मरोड़कर चंद नामों को पदों की सौगात दे देती है, जबकि योग्य और वरीय अधिकारी को बेंच पर बैठा दिया जाता है। यह उस पत्रकारिता की लौ है जो एक रिंग के बाद कटे हुए फोन से भी सच्चाई की मशाल जलाए रखती है. पढ़े पुरी खबर......

जब प्रेम चंद प्रसाद के मौन से उठी गूंज सचिवालय तक सिंहवाड़ा CHC में कनीय को प्रभारी बनाकर सीएस ने जिस विभागीय अनुशासन को कुचला, उसे भाजपा जिलाध्यक्ष की कलम और पत्रकार के सवालों ने अंततः न्याय की मेज़ तक पहुँचा दिया; क्या अब भी जवाबदेही पर पर्दा रहेगा?
फाइल फोटो: सिंहवाड़ा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र परिसर में खड़े विवादित चिकित्सक डॉ. प्रेमचंद प्रसाद। नियुक्ति को लेकर क्षेत्र में उठ रहे सवाल और जांच की मांग।

दरभंगा / सिंहवाड़ा: यह कोई मामूली स्वास्थ्य विभागीय फेरबदल नहीं है। यह उस सत्ता-संरक्षित चुप्पी का पर्दाफाश है, जो नियमों की गर्दन मरोड़कर चंद नामों को पदों की सौगात दे देती है, जबकि योग्य और वरीय अधिकारी को बेंच पर बैठा दिया जाता है। यह उस पत्रकारिता की लौ है जो एक रिंग के बाद कटे हुए फोन से भी सच्चाई की मशाल जलाए रखती है।

सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र सिंहवाड़ा में बीते कुछ महीनों से जो नियुक्ति की गई, वह न केवल स्वास्थ्य सेवा की गरिमा के खिलाफ थी, बल्कि यह बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग के लिखित आदेशों की भी सरेआम धज्जियाँ उड़ाने जैसा था। कनीय चिकित्सक डॉ. प्रेम चंद प्रसाद को प्रभारी-सह-निकासी एवं व्ययन पदाधिकारी बना दिया गया। सवाल उठता है कि किस अधिकार और किस आदेश के तहत उन्हें यह दायित्व सौंपा गया?

जब इस मुद्दे पर संवाददाता हमने डॉ. प्रेम चंद प्रसाद से फोन पर संपर्क करना चाहा, तो एक रिंग के बाद फोन काट दिया गया। यह चुप्पी सामान्य नहीं थी, यह मौन उस विवेक की हत्या का संकेत था जो जवाबदेही के नाम पर ज़िंदा रहना चाहिए था। पत्रकार के सवाल ने उस चुप्पी की दीवार में पहली दरार डाली। लेकिन सवाल यहीं खत्म नहीं हुए। दरभंगा भाजपा जिलाध्यक्ष आदित्य नारायण मन्ना ने इस नियुक्ति पर कड़ा ऐतराज जताया और मई माह में बिहार स्वास्थ्य विभाग के अवर सचिव विनोद कुमार पाठक को पत्र लिखकर स्पष्ट रूप से कहा कि यह नियुक्ति विभागीय निर्देशों की अवहेलना है। उनके पत्र में लिखा गया कि सिंहवाड़ा CHC में वरीय चिकित्सक की उपस्थिति के बावजूद कनीय को प्रभारी बना देना न केवल अन्याय है, बल्कि यह सेवा-नियमों का अपमान है।

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आख़िरकार विभाग को भी जवाब देना पड़ा। अवर सचिव विनोद कुमार पाठक ने सिविल सर्जन दरभंगा डॉ. अरुण कुमार को पत्र लिखते हुए कहा कि विभागीय नियमों के आलोक में तत्काल प्रभाव से प्रभारी पद पर वरीय चिकित्सक की पुनः पदस्थापना की जाए और की गई कार्रवाई की सूचना विभाग को दी जाए। यह आदेश केवल कागज़ का टुकड़ा नहीं था। यह उस स्याही की धार थी जिसने सत्ता की ढिलाई, सिविल सर्जन की चुप्पी और कनीय की चढ़ाई तीनों को एक साथ जवाबदेही की अदालत में खड़ा कर दिया। यहां यह सवाल भी मौजूं है कि क्या डॉ. प्रेम चंद प्रसाद को इस नियुक्ति के लिए मजबूर किया गया था या वे स्वयं इस पद पर बने रहने के इच्छुक थे? जब उनसे फोन पर संपर्क किया गया और जवाब नहीं मिला, तब यह चुप्पी कई सवाल छोड़ गई:

क्या उन्हें नियुक्ति का आदेश मौखिक रूप से दिया गया था?

क्या उन्होंने पदभार ग्रहण करने से पहले अपनी सेवा पुस्तिका में इसका उल्लेख कराया?

क्या विभागीय प्रशिक्षण के बिना उन्हें निकासी और व्ययन जैसे दायित्व सौंपना सही था?

इन तमाम सवालों के बीच जो सबसे तीखा प्रश्न उभरता है, वह यह है: क्या अब पद का पैमाना अनुभव नहीं, सत्ता की मर्ज़ी बन गई है?

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सिंहवाड़ा की यह नियुक्ति व्यवस्था के उस संक्रमण को दिखाती है, जहाँ नियमों को कागज़ की तरह मोड़ा जा सकता है, और पदों को उपकार की तरह बाँटा जा सकता है। लेकिन लोकतंत्र में पत्रकारिता का अस्तित्व इसी लिए है कि जब व्यवस्था बहरे हो जाए, तब कलम सवाल बनकर उसकी नींद तोड़े। इस पूरे प्रकरण में सिविल सर्जन डॉ. अरुण कुमार की भूमिका भी संदेह के घेरे में है। क्या उन्हें विभागीय निर्देश की जानकारी नहीं थी? या उन्होंने जानबूझकर उसकी अनदेखी की? क्या यह सिर्फ़ एक लापरवाही थी या इसके पीछे कोई 'अनकही सिफारिश' की छाया थी?

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भाजपा जिलाध्यक्ष आदित्य नारायण मन्ना का पत्र एक नागरिक प्रतिनिधि की संवेदनशीलता का प्रमाण है। उन्होंने न केवल इस अन्याय को पहचाना, बल्कि उसे स्वर भी दिया। यह लोकतंत्र की उस ताकत की याद दिलाता है जहाँ जनता के सवाल सत्ता के गलियारों को हिला सकते हैं चाहे वह सवाल किसी पत्रकार के कॉल से उठे या जनप्रतिनिधि की चिट्ठी से। अब सिविल सर्जन को आदेशित किया गया है कि वरीय चिकित्सक को प्रभारी बनाया जाए। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या विभाग केवल 'सुधारात्मक आदेश' देकर अपना कर्तव्य पूरा कर सकता है? क्या इस अवहेलना की कोई विभागीय जांच नहीं होगी? क्या यह सुनिश्चित किया जाएगा कि भविष्य में ऐसी नियुक्तियां नियमों को ताक पर रखकर न हों?

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यह घटना हमें यह भी सिखाती है कि पत्रकारिता अब भी जीवित है, जब तक कोई एक आशिष कुमार सवाल पूछता है, और कोई प्रेम चंद प्रसाद चुप्पी ओढ़ता है। यह रिपोर्ट सिर्फ़ सिंहवाड़ा के स्वास्थ्य केंद्र की कहानी नहीं है, यह बिहार की उस प्रशासनिक मानसिकता की तसवीर है जहाँ कभी-कभी पद नहीं, पहचान काम करती है; और जब पहचान भी जवाब देने में असफल हो जाए, तो पत्रकारिता को न्याय की मशाल उठानी ही पड़ती है।

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अब गेंद एक बार फिर सिविल सर्जन के पाले में है। उन्हें विभाग को कार्रवाई की जानकारी देनी है। पर पत्रकार की डायरी में अब एक और नाम दर्ज हो गया है उस डॉक्टर का जो फोन पर जवाब देने से हिचका, और उस व्यवस्था का जो नियमों को झुकाकर काम चलाती रही।दरभंगा की जनता यह देख रही है, और हम जैसे पत्रकार यह लिख रहे हैं ताकि अगली बार कोई भी सिविल सर्जन या डॉक्टर यह न कह सके कि "हमें तो पता ही नहीं था"।क्योंकि अब सवाल पूछे जा चुके हैं और जवाब देना इतिहास की नहीं, वर्तमान की ज़रूरत है।