दरभंगा में मातम की स्याही से लिखा गया बिजली और नफरत का खूनखराबा: ककोढ़ा में करंट बना श्मशान, अकबरपुर में पत्थरों से बहा लहू प्रशासन बना मूक तमाशबीन प्रधान संपादक आशिष कुमार की सनसनीखेज, लहूलुहान और सवाल उठाती रिपोर्ट जिसे पढ़कर आत्मा कांप जाए!
ये सिर्फ एक खबर नहीं... यह उस मौन पीड़ा का दस्तावेज़ है जो आज भी ककोढ़ा गांव की गलियों में कराह बनकर गूंज रही है, जहां लोग हर साल मुहर्रम के दिन मातम मनाते थे मगर इस बार ताजिया के साथ उनके अपने भी मिट्टी में समा गए। और वहीं कुछ दूर बिरौल के अकबरपुर गांव में भाईचारे के नाम पर गालियों, लाठियों और पत्थरों की भाषा बोली गई एक ही धर्म के दो दिल जब आमने-सामने हुए, तो मोहर्रम भी शर्मसार हो गया. पढ़े पुरी खबर.......

दरभंगा: ये सिर्फ एक खबर नहीं... यह उस मौन पीड़ा का दस्तावेज़ है जो आज भी ककोढ़ा गांव की गलियों में कराह बनकर गूंज रही है, जहां लोग हर साल मुहर्रम के दिन मातम मनाते थे मगर इस बार ताजिया के साथ उनके अपने भी मिट्टी में समा गए। और वहीं कुछ दूर बिरौल के अकबरपुर गांव में भाईचारे के नाम पर गालियों, लाठियों और पत्थरों की भाषा बोली गई एक ही धर्म के दो दिल जब आमने-सामने हुए, तो मोहर्रम भी शर्मसार हो गया।
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पहला दृश्य ककोढ़ा गांव, मुहर्रम और करंट की चीख: शनिवार की सांझ... आसमान पर शाम का धुंधलका था, गांव की गलियों में ढोल-नगाड़ों की मद्धिम थाप थी। बच्चे चिपके हुए थे अपने पिता की उंगलियों से, और ताजिया उठाए नौजवानों की आंखों में था मातमी रंगों का तेज।
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तभी... एक तेज़ सी चिंगारी... एक झटका... और फिर... चीखों का महापर्व शुरू हुआ। ताजिया, जो मोहम्मद हुसैन की शहादत की याद का प्रतीक था, वो 11 हजार वोल्ट के तार से छू गया। लोग तड़पने लगे। शरीर जलने लगे। चीखें शोर से तेज़ थीं और प्रशासन सन्न था। किसी ने बेटे को जलते देखा, किसी ने बाप को गिरते। किसी ने खुद को घसीटा उस आग से बाहर, किसी ने दूसरों को खींचा लेकिन बिजली नहीं कटी। हर साल की तरह इस बार भी ताजिया निकला था। हर साल की तरह इस बार भी प्रशासन की जानकारी में था। फिर क्यों इस बार बिजली नहीं काटी गई? क्यों यह लापरवाही मौत की शक्ल में आई?
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झुलसे हुए सपनों की सूची एक नाम नहीं, एक जीवन था हर घायल: मुखिया श्रवण कुमार साहू जो हर पंचायत की जिम्मेदारी उठाते थे, इस बार खुद आग की गिरफ्त में थे। उपमुखिया सुरेश महतो, जिन्होंने कई जनकल्याण कार्य कराए थे, अस्पताल की बेड पर बेसुध पड़े हैं। मो. साजिद, मो. हारून, मो. रहमत, मो. बिस्मिल, मो. मिराज ये सिर्फ नाम नहीं हैं, ये वो चेहरे हैं जिन पर कल तक बच्चे मुस्कुराते थे, और आज वे खामोश पड़े हैं, पट्टियों में लिपटे हुए। घायलों को पहले तारडीह PHC में भर्ती कराया गया, और फिर दरभंगा मेडिकल कॉलेज हॉस्पिटल भेजा गया। कुछ अब भी जूझ रहे हैं। कुछ के घरों में मातम पसरा है।
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प्रशासन का बयान स्याही से धुला सच या शब्दों की ढाल?
सकतपुर थानाध्यक्ष मनीष कुमार कहते हैं, “10-12 लोग झुलसे होंगे। मैं तो मौके पर था।" BDO प्रीति कुमारी कहती हैं, “25 की संख्या सामने आ चुकी है। इलाज जारी है।” लेकिन सवाल है अगर थानाध्यक्ष एक फीट दूर थे, तो करंट काटा क्यों नहीं गया? क्या जुलूस के समय बिजली विभाग को जानकारी नहीं दी गई थी? क्या यह अपराध नहीं कि चेतावनी के बावजूद बिजली चालू रखी गई?
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दूसरा दृश्य अकबरपुर की राख: जब एक समुदाय, दो गुट और पत्थर बन गए पहचान: जहां ककोढ़ा में बिजली ने लहू उबाला, वहीं बिरौल के अकबरपुर गांव में भाईचारे की चिता जल गई। मोहर्रम के जुलूस में नुमाइशी खेल के दौरान विवाद हुआ। मो. इस्तिखार ने विरोधी पर वार किया और फिर आग भड़क गई। लाठी-डंडे, पत्थर, गालियां जो जुलूस इमाम हुसैन की शहादत की याद में था, वो अचानक दो गुटों का अखाड़ा बन गया।
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घायल हुए लोग खून से सनी ये सूची: 23 वर्षीय मो. मिस्टर और 25 वर्षीय मो. बशीर गंभीर रूप से घायल, DMCH रेफर किए गए। बाकी घायलों में मो. नियामत अली (55), मो. निजाम (21), मो. मुजाहिद (21), मो. तनवीर (31), मो. इस्तिआक (25), मो. जफर (31), असदुल्लाह (26) सभी अब अनुमंडलीय अस्पताल में इलाजरत हैं। मोहर्रम कमेटी के अध्यक्ष मंजूर आलम कहते हैं “ये सब एक छोटी-सी नुमाइशी गलती से शुरू हुआ, किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह टकराव में बदल जाएगा।”
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SDPO प्रभाकर तिवारी का बयान शांति बहाल, पर भरोसा टूटा: प्रभाकर तिवारी, SDPO, कहते हैं “स्थिति नियंत्रण में है। उपद्रवियों की पहचान कर सख्त कार्रवाई होगी।” लेकिन सवाल यह भी है हर साल मुहर्रम में ऐसे तनाव की आशंका होती है, फिर क्यों नहीं थी ठोस सुरक्षा? क्या संवेदनशील गांवों की सूची बनी थी? क्या खेल की स्क्रिप्ट पर नजर थी?
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दरभंगा का वर्तमान राख, आंसू और प्रश्नचिन्ह: आज ककोढ़ा में चूल्हे ठंडे हैं, चेहरे सूने हैं। अकबरपुर में लोग एक-दूसरे की आंखें चुरा रहे हैं, जैसे किसी पवित्र रिश्ते का गुनाह किया हो। और प्रशासन? वो कागज़ भर रहा है, बयान दे रहा है, "हम जांच करेंगे।" जब ताजिया तार से टकराता है, तो सिर्फ करंट नहीं लगता, पूरे सिस्टम की संवेदना झुलस जाती है। जब मोहर्रम में भाईचारा चूर-चूर होता है, तो इमाम हुसैन की कुर्बानी का अर्थ धुंधला पड़ जाता है। हर साल आने वाला यह पर्व इस बार सवाल छोड़ गया है क्या अगली बार हम ज़िम्मेदार होंगे? क्या अगले साल मुहर्रम में ‘मातम’ नहीं, ‘मानवता’ का संदेश बहेगा?