डॉ. कुणाल कुमार झा बोले: ‘वैदेही पंचांग नहीं, यह विश्वविद्यालय की आत्मा है!’ पंचांग विवाद पर मिथिला जन जन की आवाज की इस विशेष साहित्यिक रिपोर्ट ने उठाया सवाल: क्या बिना विद्वत संस्तुति के छप सकता है कालचक्र का शास्त्रीय ग्रंथ?
संस्कृति जहां मौन होती है, वहां विवाद मुखर हो जाते हैं। और जब विवाद पंचांग जैसे 'कालगणना के ब्रह्मवाक्य' से जुड़ जाएं, तो वह मात्र एक अकादमिक असहमति नहीं रह जाती, बल्कि वह एक सदी पुरानी मर्यादा के माथे पर उठी भृकुटि बन जाती है। ऐसा ही कुछ घटित हुआ है मिथिलांचल की सांस्कृतिक राजधानी दरभंगा में स्थित कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय में, जहाँ पंचांग को लेकर उठे विवाद ने विश्वविद्यालय की परंपरा, प्रशासनिक प्रक्रिया और शैक्षणिक गरिमा तीनों को कठघरे में खड़ा कर दिया है. पढ़े पुरी खबर.......

दरभंगा: संस्कृति जहां मौन होती है, वहां विवाद मुखर हो जाते हैं। और जब विवाद पंचांग जैसे 'कालगणना के ब्रह्मवाक्य' से जुड़ जाएं, तो वह मात्र एक अकादमिक असहमति नहीं रह जाती, बल्कि वह एक सदी पुरानी मर्यादा के माथे पर उठी भृकुटि बन जाती है। ऐसा ही कुछ घटित हुआ है मिथिलांचल की सांस्कृतिक राजधानी दरभंगा में स्थित कामेश्वर सिंह दरभंगा संस्कृत विश्वविद्यालय में, जहाँ पंचांग को लेकर उठे विवाद ने विश्वविद्यालय की परंपरा, प्रशासनिक प्रक्रिया और शैक्षणिक गरिमा तीनों को कठघरे में खड़ा कर दिया है।
पृष्ठभूमि: जब ‘वैदेही’ और ‘विश्वविद्यालय’ एक नाम में उलझ गए: हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी संस्कृत विश्वविद्यालय का पंचांग प्रकाशित होना था। वह पंचांग, जिसमें मिथिला क्षेत्र के व्रत, पर्व, विवाह, संस्कार, उपवास, ग्रह-नक्षत्र की गणनाएँ और समाज की अनुष्ठानिक रेखाएँ तय होती हैं। परंतु इस बार जो दृश्य सामने आया, उसने इस परंपरा को प्रश्नों के घेरे में ला दिया।
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डॉ. कुणाल कुमार झा, जो कि विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग के विभागाध्यक्ष हैं, उन्होंने आरोप लगाया कि पंचांग का प्रकाशन इस वर्ष बिना विधिवत प्रक्रिया के हुआ और विश्वविद्यालय की स्वीकृति से पहले ही वह बाजार में ‘विश्वविद्यालय पंचांग’ के नाम से उपलब्ध हो गया। इस प्रकार “वैदेही पंचांग” और “विश्वविद्यालय पंचांग” का शीर्षक एक हो गया, परंतु उसका शास्त्रीय, प्रशासनिक और नैतिक आधार अलग-अलग। और यही है उस विवाद का केंद्र, जो अब धीरे-धीरे एक गंभीर सांस्कृतिक बहस का स्वरूप ले चुका है।
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गणना की गरिमा और गणितज्ञों का अपमान?
डॉ. झा ने मीडिया से संवाद करते हुए बताया कि पंचांग निर्माण केवल छपाई की प्रक्रिया नहीं, अपितु एक विद्वत्कारी कार्य होता है, जिसके लिए प्रतिवर्ष ज्योतिष विभाग दो गणितज्ञों को नियुक्त करता है, जो सैकड़ों गणनाओं, मुहूर्तों, योगों और संवत्सरों का निर्धारण करते हैं। हमारे गुरु, श्रद्धेय पंडित श्रीरामचंद्र झा जी के मार्गदर्शन में यह कार्य परंपरागत रूप से संपन्न होता है। इस वर्ष भी गणना का कार्य विभाग द्वारा किया गया। परंतु लोकार्पण से पूर्व ही 'विश्वविद्यालय' नाम से पंचांग बाजार में पहुँच गया, जबकि बैठक, समिति की स्वीकृति और कुलपति महोदय की अंतिम अनुमति लंबित थी।” यह बयान विश्वविद्यालय प्रशासन की भूमिका पर एक मौन प्रश्नचिह्न अंकित करता है।
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प्रक्रिया की उपेक्षा या सांस्थानिक मर्यादा का अपहरण?
डॉ. कुणाल झा का दावा है कि 6 जून को जब उन्हें यह सूचना प्राप्त हुई कि बाजार में ‘विश्वविद्यालय पंचांग’ के नाम से एक प्रकाशन आ चुका है, तो उन्होंने तत्क्षण कुलपति डॉ. लक्ष्मी निवास पांडे को स्कैन की गई प्रति व्हाट्सऐप के माध्यम से भेजी। परंतु, उनके अनुसार “न कोई उत्तर मिला, न कोई संवाद हुआ, न ही प्रकाशन प्रभारी की ओर से कोई स्पष्टीकरण आया। विभागाध्यक्ष होकर भी मुझे अंधकार में रखा गया।” यह स्थिति केवल एक विभागाध्यक्ष की उपेक्षा नहीं, बल्कि एक संस्थान के आत्मसम्मान पर प्रश्न है। क्या एक विश्वविद्यालय का पंचांग इतने अनौपचारिक ढंग से बिना किसी समिति बैठक, बिना किसी निर्णायक अनुमति के छापा जा सकता है?
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विवाद का सार: क्या वैदेही पंचांग को 'विश्वविद्यालय' का लबादा पहनाया गया?
जिन प्रकाशक को पंचांग छापने की अनुमति दी गई, वह वर्षों से “वैदेही पंचांग” के नाम से निजी स्तर पर पंचांग निकालते रहे हैं। डॉ. झा का आरोप है कि उन्हीं लोगों ने इस बार भी निजी पंचांग को ही “विश्वविद्यालय पंचांग” कहकर बाजार में उतार दिया। “कोई भी व्यक्ति स्वतंत्र रूप से अपना पंचांग प्रकाशित कर सकता है। परंतु यदि वह ‘विश्वविद्यालय’ के नाम का उपयोग करता है, तो वह नैतिक और विधिक मर्यादा का उल्लंघन करता है।” वास्तव में ‘विश्वविद्यालय’ एक वैधानिक इकाई है। उसके नाम से प्रकाशित कोई भी सामग्री केवल ‘प्रकाशन’ नहीं, बल्कि संस्थान की ‘औपचारिक अभिव्यक्ति’ होती है। ऐसे में यह स्पष्ट होना चाहिए कि क्या वह 'वैदेही पंचांग' है, या विश्वविद्यालय की विधिवत स्वीकृत पंचांग?
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अकादमिक समाज का मौन और एक प्रश्न “क्या यह गलती है या योजना?”
डॉ. झा ने यह भी कहा कि पंडित सभा, जो कि पंचांग निर्माण की अंतिम विद्वत-परिषद होती है, उसमें सारे पंचांगकार उपस्थित होते हैं। इस सभा में गणित, ग्रह-नक्षत्र, पर्व और त्यौहारों का अंतिम विश्लेषण होता है। जब यह सभा और ज्योतिष विभाग ही अंधेरे में हो, तो किस आधार पर यह पंचांग 'विश्वविद्यालय का पंचांग' कहा जा सकता है?
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“यदि विश्वविद्यालय पंचांग यही है, तो फिर गणना क्यों कराते हैं? समिति क्यों गठित करते हैं? विज्ञापन क्यों देते हैं? यह न केवल प्रक्रिया की उपेक्षा है, बल्कि उस विद्वत परंपरा का तिरस्कार भी है जो दरभंगा की पहचान रही है।”
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अब आगे क्या? डॉ. झा की चेतावनी और विश्वविद्यालय की अग्निपरीक्षा: वर्तमान स्थिति में डॉ. कुणाल कुमार झा की माँग है कि विश्वविद्यालय प्रशासन तुरंत इस विषय पर प्रकाशन समिति की बैठक बुलाकर स्थिति स्पष्ट करे, अन्यथा वे विभागाध्यक्ष होने के नाते विधिक कार्रवाई करेंगे। अगर विश्वविद्यालय इस पर कोई ठोस निर्णय नहीं लेता, तो यह स्थिति आने वाले वर्षों में विश्वविद्यालय की साख को भी प्रश्नों के कटघरे में खड़ा कर देगी।
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यह विवाद केवल पंचांग का नहीं, बल्कि विश्वविद्यालय की संस्थागत स्वायत्तता, प्रशासनिक पारदर्शिता और विद्वत गरिमा का है। यदि एक निजी प्रकाशन ‘विश्वविद्यालय’ के नाम से सामग्री प्रकाशित करता है, और उस पर विश्वविद्यालय मौन है, तो यह मौन सबसे बड़ा दोष है। मिथिला जैसी सांस्कृतिक भूमि पर, जहां कालगणना स्वयं एक ब्रह्मवाक्य है, वहाँ पंचांग से जुड़ा हर निर्णय शास्त्र और गरिमा दोनों का दर्पण होना चाहिए न कि गोपनीय सौदे का।
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दरभंगा की धरती ने विद्वानों को जन्म दिया है न केवल ज्योतिष के क्षेत्र में, बल्कि न्याय, नीति और शास्त्र के प्रत्येक आयाम में। आज उसी धरती पर जब पंचांग जैसे पवित्र ग्रंथ पर विवाद उठता है, तो केवल शब्दों का नहीं परंपरा का अपमान होता है। अब आवश्यक है कि कुलपति महोदय मौन न रहें। एक समिति, एक स्पष्टीकरण, और एक निर्णय यही विश्वविद्यालय की गरिमा की रक्षा का मार्ग है। पंचांग केवल तिथियों का संकलन नहीं होता, वह समाज की आत्मा का समयबोध है। जब आत्मा भ्रमित हो जाए, तो शरीर के सारे कर्म निष्फल हो जाते हैं।