छः हज़ार में बिक गया कानून, वर्दी ने बेच दी संविधान की आत्मा: सिमरी थाना के स०अ०नि० अनिल तिवारी पर रिश्वत का धब्बा, शराबबंदी की पवित्रता पर कलंक और न्याय की राह में छिपी खाकी की गद्दारी!
बिहार के दरभंगा जिले का एक कोना सिमरी थाना इन दिनों कानून की किताबों से ज्यादा चर्चा में है ‘उस’ काली कमाई के कारण, जो वर्दी के भीतर से निकली। इस वर्दी का नाम है अनिल कुमार तिवारी, जो बतौर सहायक अवर निरीक्षक (स०अ०नि०)सिमरी थाने में तैनात थे। आज वही अनिल तिवारी, निलंबित अधिकारी बन चुके हैं रिश्वतखोरी के आरोप में। और यह आरोप कोई मामूली नहीं, बल्कि कानून के उस प्रावधान को बेचने का, जो शराबबंदी जैसे गंभीर सामाजिक संकल्प को संभाले हुए है. पढ़े पुरी खबर......

बिहार के दरभंगा जिले का एक कोना सिमरी थाना इन दिनों कानून की किताबों से ज्यादा चर्चा में है ‘उस’ काली कमाई के कारण, जो वर्दी के भीतर से निकली। इस वर्दी का नाम है अनिल कुमार तिवारी, जो बतौर सहायक अवर निरीक्षक (स०अ०नि०)सिमरी थाने में तैनात थे। आज वही अनिल तिवारी, निलंबित अधिकारी बन चुके हैं रिश्वतखोरी के आरोप में। और यह आरोप कोई मामूली नहीं, बल्कि कानून के उस प्रावधान को बेचने का, जो शराबबंदी जैसे गंभीर सामाजिक संकल्प को संभाले हुए है।
ADVERTISEMENT
पर्दे के पीछे की कहानी: छह हज़ार की आज़ादी और एक अपराधी की खुली हवा: मामला बहुत बड़ा लगता नहीं पर है बहुत बड़ा। इंद्र कुमार, निवासी भराठी, थाना सिमरी एक सामान्य ग्रामीण। उसके ऊपर बिहार मद्य निषेध एवं उत्पाद अधिनियम 2018 (संशोधित 2022) के तहत शराब संबंधी मामला दर्ज होता है। पुलिस उसे गिरफ्तार करती है, कागज़ी खानापूरी होती है... लेकिन फिर, कानून के पन्ने कहीं गिर जाते हैं... और ₹6000 का सौदा तय होता है। जी हाँ, मात्र छह हज़ार रुपए में शराबबंदी का संकल्प दरकता है, और इंद्र कुमार को छोड़ दिया जाता है।
ADVERTISEMENT
यह पूरा घटनाक्रम तब सामने आया जब कमतौल अंचल के पुलिस निरीक्षक को जांच सौंपी गई। जांचोपरांत साफ हुआ सहायक अवर निरीक्षक अनिल तिवारी ने इंद्र कुमार से ₹6000 की अवैध राशि लेकर उसे छोड़ दिया। यानी, अपराध हुआ नहीं... कराया गया।
ADVERTISEMENT
निलंबन आदेश: जब सत्य का पलड़ा भारी पड़ा: कहते हैं, न्याय धीमा होता है... पर इस बार दरभंगा पुलिस प्रशासन ने कम से कम पहला कदम तेजी से उठाया। 15 मई 2025 को ही स०अ०नि० अनिल तिवारी को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया गया। उन्हें सामान्य जीवन यापन भत्ता (subsistence allowance) पर रखा गया है और मुख्यालय दरभंगा पुलिस केंद्र निर्धारित किया गया है। यह निर्णय कमतौल के अंचल निरीक्षक द्वारा की गई अनुशंसा पर आधारित है, जिसमें यह स्पष्ट कहा गया कि तिवारी का आचरण न केवल संदेहास्पद है, बल्कि न्याय प्रक्रिया के साथ खिलवाड़ भी है। सवालों की दुनिया: क्या वर्दी अब भी भरोसे की प्रतीक है?
ADVERTISEMENT
दरभंगा, मिथिला का सांस्कृतिक हृदय। जहां साक्षरता, शालीनता और शुचिता इन तीन शब्दों को लोग जीवन में उतारते हैं। लेकिन जब इसी ज़मीन पर खाकी वर्दी पहने एक व्यक्ति छह हज़ार की कीमत पर संविधान बेचता है, तब सवाल उठता है क्या हमने वर्दी के भीतर का भ्रष्टाचार देखना छोड़ दिया है? क्या यह पहला मामला है? कदाचित नहीं। क्या आख़िरी होगा? निश्चित नहीं।
ADVERTISEMENT
लोक और पुलिस: भरोसे की पुल टूटता क्यों है? जब किसी गाँव में पुलिस आती है, तो बच्चे अब भी चुप हो जाते हैं “पुलिस आ गई” कहकर। यह डर है या सम्मान? शायद अब वह मिश्रित भाव बन चुका है, जिसमें अब श्रद्धा से ज्यादा भय और अविश्वास है। अनिल तिवारी जैसे अधिकारी, उस भय को भरोसे में बदलने की जगह, उसे स्थायी रूप से कुंठा में बदल रहे हैं। जब पीड़ित को न्याय नहीं, बल्कि सौदे की दर पर मुक्ति मिले, तो कानून ‘ग्रंथ’ नहीं रह जाता वह दुकान बन जाता है।
ADVERTISEMENT
क्या यह सिर्फ तिवारी की गलती है? यह भी देखने की जरूरत है कि क्या अनिल तिवारी अकेले थे इस लूट के रास्ते पर? क्या थाना स्तर पर अन्य कर्मियों को इसकी भनक नहीं थी? क्या यह एक ‘व्यवस्था’ है जिसमें सब कुछ ‘हिस्से’ में बंटता है? अगर यह सिर्फ एक व्यक्ति की गलती थी, तो बाकी सब मूकदर्शक क्यों थे?
ADVERTISEMENT
प्रशासन की भूमिका: निलंबन के आगे क्या? प्रशासन ने सराहनीय रूप से पहला कदम उठाया निलंबन। लेकिन क्या यहीं बात रुकेगी? क्या निलंबन के बाद मामला वर्षों तक विभागीय जांच की फाइलों में धूल खाता रहेगा? क्या इंद्र कुमार का बयान रिकॉर्ड हुआ क्या उस ₹6000 की वापसी हुई? क्या तिवारी के पिछले सेवा इतिहास की जांच हो रही है? यह सब प्रश्न अभी अधूरे हैं... जवाब प्रशासन के पास हैं, पर वो अभी चुप है।
ADVERTISEMENT
न्याय की दिशा: कठोरता या केवल खानापूरी? अगर बिहार सरकार सच में शराबबंदी को सामाजिक आंदोलन मानती है, तो ऐसे मामलों में केवल निलंबन नहीं, आपराधिक मामला दर्ज कर जेल भेजना चाहिए। अन्यथा, कानून की किताबें महज़ फोटोशूट की प्रॉप बन जाएँगी और ‘शराबबंदी’ चुनावी घोषणापत्र में एक जुमला भर रह जाएगी।
ADVERTISEMENT
छह हज़ार रुपये की यह कहानी, पैसे से ज्यादा भरोसे की लूट है। यह घटना बताती है कि वर्दी का खून सफेद होता जा रहा है। जब कानून अपने ही लोगों से घायल हो, तो समाज को आक्रोशित नहीं जागृत होना चाहिए। सवाल केवल अनिल तिवारी का नहीं है... सवाल है उस तंत्र का, जो उन्हें यह यकीन देता है कि "कोई कुछ नहीं करेगा"।और यही यकीन सिस्टम की सबसे बड़ी हार है।